1857 की क्रांति जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। इस क्रांति से सम्बंधित अनेक प्रश्न हैं जो हमारे सामने अक्सर आते हैं , क्या यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था? क्या यह सैनिक क्रांति थी ? क्रांति कहाँ से शुरू हुई ? क्रांति के प्रमुख नायक, क्रांति क्यों असफल हुई ? क्रांति का स्वरुप क्या था? इस लेख में इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिलेगा और आगामी परीक्षाओं के लिए बेहतर तैयारी की सामग्री मिलेगी।
इस विद्रोह अथवा क्रांति को भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता आंदोलनों के प्रेरणास्रोत के रूप में देखा जाता है। यह लेख Revolution of 1857 in Hindi के माध्यम से 1857 की क्रांति का स्वरूप, कारण, परिणाम, नेतृत्वकर्ता, प्रश्न और महत्वपूर्ण तथ्य आपके साथ साझा किये है।

क्या 1857 की क्रांति भारत की आज़ादी का प्रथम संग्राम है?
हम यह जानते हैं की भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध पहली बार सामूहिक विद्रोह या क्रांति 1857 ईस्वी में हुई जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, इसके पीछे मुख्य कारण यह है, क्योंकि यह प्रथम बार था जब भारत की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की जिसमें भारत के विभिन्न वर्गों, सैनिकों, किसानों, जमींदारों, राजाओं, और आम जनता ने सामूहिक रूप से विद्रोह किया।
हालाँकि यह विवाद का विषय रहा है कि यह विद्रोह भारत की आज़ादी के लिए था अथवा ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध। लेकिन इस बात में कोई शंका नहीं कि विद्रोह में शामिल जनता और जमींदार से लेकर राजा तक सभी लोग अंग्रेंजों को भारत से बाहर निकलना चाहते थे। भले ही यह क्रांति अपने उद्देश्यों को प्राप्त किये बिना ही समाप्त हुई मगर इसने भविष्य के तमाम आंदोलनों को जन्म दिया।
ब्रिटिश इतिहासकार इसे इस क्रांति को सिर्फ ‘सिपाही विद्रोह’ कहा है, लेकिन अधिकांश भारतीय इतिहासकारों और वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे ‘प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ कहा है, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर क्रांति हुई। आगे इस क्रांति के कारणों को जानेंगे।
1857 की क्रांति के कारण (Causes of the Revolt of 1857)
भारत में अंग्रेजी शासन का प्रारम्भ 1757 ईस्वी के प्लासी के युद्ध से माना जाता है। अगंरेजों ने इस युद्ध के बाद बंगाल में अपनी सत्ता को मजबूत किया और बक्सर के युद्ध 1764 द्वारा साम्राज्य विस्तार को स्थायी रूप दिया। 1757 और 1857 ईस्वी तह के 100 सालों में ब्रिटिश सरकार ने भारत में तमाम देशी राजाओं को अपने अधीन किया और एक विशाल अंग्रेजी सम्राज्य स्थापित किया।
अधिकांश इतिहासकार जिनमें एंग्लो-इंडियन और भारतीय दोनों ही शामिल हैं ने सैनिक असंतोष और चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 के विद्रोह का प्रमुख कारण माना है। परन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के शोध से यह सिद्ध हुआ है की चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह के एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं था.
इस विद्रोह के कारण जून 1757 के प्लासी के युद्ध से 29 मार्च 1857 को मंगल पांडेय द्वारा अंग्रेज एजुटेंट की हत्या तक के अंग्रेजी प्रशासन के 100 वर्षों के इतिहास में छिपे हैं। इस प्रकार चर्बी वाले कारतूस और उससे उपजा असंतोष तो केवल एक चिंगारी मात्र थी, जिसने उन समस्त कारणों राजनैतिक, सामजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों को एक जंगल में फैली विशाल आग में बदल दिया।
राजनीतिक कारण (Political Reasons)
लॉर्ड डलहौजी 1848 से 1856 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहा। वह एक साम्राज्यवादी था और उसके प्रशासन के दौरान, कई ऐसी नीतियों को लागु किया गया जिसके द्वारा भारतीय राजाओं को खत्म कर उनके साम्राज्य का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में कर दिया गया। डलहौजी द्वारा लागू की गई सबसे प्रमुख नीति थी गोद निषेध नियम के अनुसार यदि किसी स्थानीय राजा का कोई जैविक उत्तराधिकारी नहीं था तो उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला दिया जाता था। कोई भी देशी राजा बिना अंग्रेजों की अनुमति के किसी को गोद नहीं ले सकता था।
यहां तक कि अगर भारतीय राजा ने किसी एक बेटे को गोद लिया, तो ब्रिटिश अधिकारियों ने गोद लेने को मान्यता देने से इनकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप कई भारतीय शासकों को ब्रिटिश शासन के अधीन नीतियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। इस व्यापक नीति के तहत, कई देशी राज्यों को अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया, जिनमें शामिल हैं:
देशी राज्य | विलय का वर्ष |
सतारा | 1848 |
जैतपुर, संबलपुर, बुंदेलखंड | 1849 |
बालाघाट | 1850 |
उदयपुर | 1852 |
झांसी | 1853 |
नागपुर | 1854 |
अवध | 1856 |
ब्रिटिश अधिकारियों ने इन राज्यों के शासकों को सत्ता से हटा दिया, जिससे उन्हें अपने क्षेत्रों और सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयास करने के लिए प्रेरित किया। इसके आलावा कुशासन का आरोप लगाकर कई देशी राज्यों को अंग्रेजी साम्रज्य में मिला लिया। अवध को कुशासन का आरोप लगाकर विलय किया गया और अवध की वेगमों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। इसके आलावा कई देशी राजाओं की पेंशन बंद कर दी गई और जमींदारों की जमीने छीन ली गईं।
भारत की जनता अपने राजाओं को उतना ही सम्मान देती थी और ब्रिटिश सरकार द्वारा उनके राज्य छीने जाने से छुब्ध थी और एक अवसर तलाश रही थी कैसे अंग्रेजों को इस देश से भगाया जाए।
- लार्ड वैल्जली की सहायक सन्धि द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय राज्यों पर चतुराई पूर्वक नियन्तण हासिल कर लिया।
- तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत जिसे अंग्रेजी में doctrine of lapse कहा जाता है एक नई साम्राज्य विलय नीति को जन्म दिया जिसके अनुसार किसी भी भारतीय हिन्दू राजाओं के निसंतान होने की दशा में किसी अन्य संतान को गोद लेने की अनुमति नहीं दी।
- सतारा, जैतपुर , सम्भलपुर, बघाट, ऊदेपुर, झाँसी और नागपुर को व्यपगत के सिद्धांत के तहत अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया।
- कई भारतीय राजाओं जिसमें तंजोर और कर्नाटक के नवाबों शामिल हैं की राजकीय उपाधियाँ छीन ली गईं।
- अवध को कुशासन का आरोप लगाकर विलय किया गया
- मुग़ल सम्राट की उपाधि समाप्त कर दी गई
- इस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही अंग्रेजों की निति से भयभीत थे।
प्रशासनिक कारण
भारत में ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी दी मगर उनके लिए उच्च पदों पर न्युक्ति के दरबाजे पूर्णतः बंद थे। कोई भी भारतीय ब्रिटिश सेना में कोतवाल से पहुँच सकता था। उससे ऊपर के सभी पद ब्रिटिश अधिकारीयों के लिए आरक्षित थे। इसके आलावा भारतीय कर्मचारियों और ब्रिटिश कर्मचारियों की सैलरी में भी अंतर होता था।
आर्थिक कारण
भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व ग्रामाधारित अर्थ व्यवस्था थी और भारतीय अपनी जरूरतों के लिए वास्तु विनिमय प्रणांली का इस्तेमाल करते थे। मगर ब्रिटिश सरकार ने भारतीय कृषि को बर्बाद किया और अंग्रेजों द्वारा थोपी गई आर्थिक नीतियों ने भारतियों को दरिद्रता की स्थिति में पहुंचा दिया जिसने विद्रोह की उत्पत्ति में भूमिका महत्वपूर्ण निभाई। निर्यात करों में वृद्धि, आयात करों में कमी, हस्तकला उद्योगों की गिरावट और धन की निकासी के साथ-साथ तीन भू-राजस्व नीतियों, अर्थात् स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवारी बंदोबस्त, सभी ने भारतीय आबादी के बीच आर्थिक असंतोष में योगदान दिया।
इसके आलावा अंग्रेजों ने भारतीय किसानों को नील और कपास की खेती के लिए मजबूर किया ताकि मैनचेस्टर के कपडा उद्योग को कच्चा माल मिल सके। किसानों ने अपने हाथ तक काट लिए और कुछ जंगलों में चले गए और कई चोर लुटेरे और ठग बन गए। अंग्रेजी व्यवस्था ने भारतियों के नैतिक पतन में योगदान दिया और भारतीय हस्तकला उद्योगों को नष्ट कर दिया। भारतीय चरखे को तोड़ डाला और अंग्रेजी कपड़ा भारतीय बाजार में उतार दिया।
- सेना में भारतीय के लिए सबसे ऊँचा पद सूबेदार का था जिसका मासिक वेतन 60-70 रूपये मासिक था।
- असैनिक प्रशासन में सबसे बड़ा पद अमीन का था, जिसका वेतन 500 रूपये मासिक था।
- भूमिकर बहुत कड़ाई से एकत्रित किया जाता था।
- लगान समय पर जमा न करने पर जमीदारों की जमींदारी छीन ली जाती थी।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के हस्तक्षेप ने भारतीय कटीर उद्योगों को लगभग समाप्त कर दिया।
कार्ल मार्क्स ने 1853 में ही लिखा था “यह अंग्रेजी घुसपैठिया था जिसने भारतीय खड्डी (loom) को तोड़ दिया और चरखे का नाश कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय सूती कपडे को अंग्रेजी मंडियों से वंचित करना आरम्भ किया और फिर भारत में एक ऐसा मोड़ दिया कि सूती कपडे की मात्र भूमि को ही सूती कपडे से भर दिया। सूती कपडा उद्योग के नाश होने से कृषि पर बोझ बढ़ गया और अंत में देश अकिंचन हो गया।”
सामाजिक-धार्मिक कारण
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होते ही इंग्लैंड की सरकार ने इसे धर्म को प्रोत्साहन देने के लिए भारत में ईसाई मिशनरियों को भारत में भेजना शुरू किया। इन इसे मिशनरियों ने भारतियों को ईसाई बनाने के लिए अनेक लालच और सुविधाओं का झांसा देकर इसे धर्म में बदलना शुरू कर दिया। इसके आलावा अंग्रेजों ने भारत में चल रही कुछ कुप्रथाओं जैसे, सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह की कानूनी मान्यता और समुद्री यात्राओं पर भारतीय सैनिकों की बलपूर्वक तैनाती जैसे सुधारों ने भारतीयों के मन में यह धरना बना दी कि अंग्रेज हमारी सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं को समाप्त कर रहे हैं। इन कारकों ने विद्रोह की चिंगारी को भड़काया।
- ईसाई पादरियों ने भारतियों को लालच देकर इसे बनाया जिससे भारतीय जनता अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई।
- पश्चिमी शिक्षा यानी अंग्रेजी के प्रचलन ने भारतीयों में आक्रोश उत्पन्न किया।
- अंग्रेज हिन्दू और मुस्लिम धर्म ग्रंथों और पूजा स्थलों का अपमान करते थे और धर्मिक ग्रंथों की आलोचना करते थे।
- रेल के चलने से सभी जातियों के लोग सफर करने लगे जिससे उच्च जाति के लोग नाराज होने लगे।
- भारतीयों को काले और सूअर की संज्ञा देते थे। अंग्रेज भारतीयों को अपमानित करने का कोई मौका न चूकते थे।
- शिकार पर जाते समय अंग्रेज पदाधिकारी और यूरोपीय सैनिक भारतीयों पर बलात्कार करते थे। अंग्रेज न्यायाधीश इन मामलों में साधारण सा दंड देकर छोड़ देते थे।
1857 के विद्रोह के सैनिक कारण
बंगाल सेना का 60 प्रतिशत भाग अवध तथा उत्तर-पश्चिमी प्रान्त (उत्तर प्रदेश) से आता था और उनमें से अधिकतर उच्च जातीय ब्रह्मण और राजपूत थे जो प्रायः उस अनुशासन को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जिसमें उन्हें निम्नजातीय सैनिकों को समान माना जाये। सर चार्ल्स नेपियर को इन “उच्च जातीय” भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था।
- भारतीय सैनिकों को विदेश भी भेजा जाता था और कोई अतिरिक्त भत्ता भी नहीं दिया जाता।
- था।
- जो भारतीय सैनिक विदेश सेवा से वापस आते थे उन्हें भारतीय समाज से वहिष्कृत कर दिया जाता था।
- भारतीय सैनिकों को अपनी वर्दी और जूतों का खर्चा खुद करना पड़ता था जबकि अंग्रेज सैनिकों को इसके लिए अतिरिक्त भत्ता दिया जाता था।
- 1856 में यूरोपीय और भारतीय सैनिकों का अनुपात लगभग 1 : 5 था ( 238000 भारतीय और 45000 अंग्रेज सैनिक )
1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण
ब्रिटिश सरकार ने सं 1856 में ब्रिटिश सरकार ने पुरानी प्रचलित बन्दुक Brown Bess (‘ब्राउन बेस’) हटा दिया और उसके स्थान पर नई एनफील्ड राइफल ( New Enfield Rifle ) सेना के प्रयोग के लिए लागू कर दिया। इस नई राइफल के प्रयोग का प्रशिक्षण डम-डम, अम्बाला और स्यालकोट में दिया जाना था। इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था। जनवरी 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फ़ैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी है।
यद्पि अंग्रेज अधिकारियों ने बिना जाँच के इसका खंडन कर दिया। मगर आगे जाँच में तथ्य सही पाया गया कि “गाय और बैलों की चर्बी वास्तव में ही वूलिच शस्त्रागार ( woolwich arsenal ) में प्रयोग की जाती थी।” अब सैनिकों को विश्वास हो गया था कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उनको धर्म भ्रष्ट करने का एक निश्चित प्रयत्न है।
मंगल पांडे का विद्रोह
विद्रोह की चिंगारी 29 मार्च, 1857 को शुरू हुई, जब कलकत्ता के समीप बैरकपुर में तैनात 19वीं और 34वीं नेटिव इन्फंट्री ( देशज पैदल सेना ) के कुछ भारतीय सैनिकों ने बगावत कर दी और एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पांडे ने दो अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी। बमगर इस गावत को दवा दिया गया और मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फांसी दे दी गई। मगल पांडेय ने मुंह से कारतूस काटने से इनकार कर दिया था और अपने सर्जेंट पर गोली चाला दी थी।
1857 के विद्रोह का प्रारम्भ कहाँ से हुआ?
1857 विद्रोह का प्रारम्भ 10 मई 1857 को मेरठ, उत्तर प्रदेश से हुआ जब 10 मई 1857 को मेरठ में तीसरी कैवलरी रेजीमेंट सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों को छूने से इंकार कर दिया और खुलेआम बगावत कर दी। इसके बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर कूच किया।
1857 के विद्रोह का विस्तार
11 मई 1857 को विद्रोही मेरठ से दिल्ली पहुंचे और मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफर से नेतृत्व करने को कहा। विद्रोहियों ने 12 मई को दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय का भारत का सम्राट घोषित कर सिया गया।
दिल्ली का हाथ से निकलना अंग्रेजों के लिए एक धक्का था अतः अंग्रेजों ने पंजाब से सेनाएं बुलाकर दिल्ली पर आक्रमण किया विद्रोही बहुत वीरता से लड़े परन्तु सीमित संसाधनों के कारण अंत में हार गए। सितम्बर 1857 को दिल्ली अंग्रेजों के हाथ में गई, जॉन निकलसन वीरगति को प्राप्त हुआ। बहादुरशाह को गिरफ्तार कर उसके दो पुत्रों और पौत्र को खुलेआम गोली से उड़ा दिया गया। बहादुरशाह को रंगून निर्वासित कर दिया गया जहां 7 नवम्बर 1962 को उसकी मृत्यु हो गई।
लखनऊ में विद्रोह 4 जून 1857
4 जून 1857 को लखनऊ में विद्रोह का आरम्भ हुआ। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की रानी बेगम हजरत महल ने अपने 11 वर्षीय पुत्र बिजरिस कादर को नवाब घोषित कर दिया। भारतीय सैनिकों ने रेजीडेन्सी को घेर लिया जहां ब्रिटिश रेजिडेंट हेनरी लॉरेंस ने 2000 सैनिकों के साथ शरण ले रखी थी। हेनरी लॉरेंस को मार डाला गया।
नवम्बर 1857 को सर कॉलिन कैम्पबेल को मुख्य सेनापति बनाकर इंग्लैंड से लखनऊ में विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया। कैम्पबेल ने गोरखा सेना की मदद से मार्च 1858 को लखनऊ पर कब्ज़ा कर लिया बेगम हजरत महल नेपाल भाग गई और मौलबी अहमदुल्ला लड़ता हुआ मारा गया।
कानपुर में विद्रोह 4 जून 1857
4 जून को द्वीतीय कैवेलरी और प्रथम नेटिव इन्फेंट्री ने कानपुर में बगावत कर दी और सैकड़ों अंग्रेज पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार डाला। कानपूर में विद्रोह के नेता पेशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र धोदू पंडित उर्फ़ नाना साहिब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया।
नाना साहिब की सहायता तात्या टोपे ने की। लखनऊ पर कब्जे के पश्चात् कॉलिन कैम्पबेल ने कानपुर में विद्रोह का दमन किया और 6 दिसंबर 1858 को लखनऊ पर पुनः अधिकार कर लिया। नाना साहिब बचकर नेपाल चले गए। तांत्या टोपे झाँसी चले गए और रानी लक्ष्मीबाई से जा मिले।
झाँसी में विद्रोह
रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में विद्रोहियों का नेतृत्व किया। लार्ड डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था और हड़प नीति के तहत राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया था। रानी ने हर इसके खिलाफ अपील की पर कोई सुनबाई नहीं हुई। विद्रोह के समय रानी ने पुनः अंग्रेजों से बातचीत शुरू की और कहा कि अगर ब्रिटिश सरकार उसका राज्य लौटा दे तो वह अंग्रेजों का साथ देगी। मगर अंग्रेजों ने उनका यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। तब लाक्षीबाई ने विद्रोही सैनिकों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।
झाँसी की रानी ‘मर्दानगी’ के साथ अंत तक लड़ी और युद्धक्षेत्र में लड़ते हुए 17 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। जनरल ह्यूज रोज जिसने उन्हें पराजित किया , अपने दुर्जेय शत्रु के बारे में कहा था कि “यहाँ वह औरत सोई हुई है जो विद्रोह में एकमात्र मर्द थी”। तांत्या टोपे को एक विश्वासघाती की मदद से पकड़ा गया और 15 अप्रैल 1859 को फांसी दे दी गई।
बरेली में विद्रोह
बरेली में रुहेलखंड के भूतपूर्व शासक के उत्तराधिकारी खान बहादुर खान ने स्वयं को नवाब नाजिम घोषित कर दिया। 1859 के अंत तक बरेली पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया। खान बहादुर खान मारा गया।
बिहार में विद्रोह
बिहार में आरा की विशाल जागीर के स्वामी अस्सी वर्षीय एक स्थानीय वृद्ध राजपूत जमींदार कुंवर सिंह ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया। कुंवर सिंह ने सबसे लम्बे समय तक विद्रोह का संचालन किया। दस मास की लम्बी सफल लड़ाइयों के बाद युद्ध में मिले घावों के कारण कुंवर सिंह 9 मई1858 को शहीद हो गए।
बनारस में विद्रोह का दमन कर्नल नील ने किया। इस प्रकार 1858 के अंत तक विद्रोह पूर्णतः दबा दिया गया।
1857 की क्रांति का स्वरूप
इतिहासकारों ने 1857 की क्रांति के स्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं
यह एक सैनिक विद्रोह था –
इस विचार के प्रतिपादक सर जॉन लारेन्स और जान सीले हैं। सर जान सीले के अनुसार 1857 का विद्रोह “एक पूर्णतया देशभक्ति रहित और स्वार्थी सैनिक विद्रोह था जिसमें न कोई स्थानीय नेतृत्व ही था और न ही सर्वसाधारण का समर्थन हासिल था।” उसके अनुसार “यह एक संस्थापित
ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीय सैनिकों का विद्रोह था
भले ही 1857 के विद्रोह की चिंगारी सैनिकों द्वारा लगाई गई मगर इस विद्रोह में शामिल लोग भिन्न-भिन्न वर्गों से थे। यह भी सत्य है कि सभी भारतीय सैनिक इस विद्रोह का हिस्सा नहीं थे, बल्कि अधिकांश सैनिक अंग्रेजी सरकार के साथ थे। विद्रोही जनता के प्रत्येक वर्ग से आये थे। अवध में इसे जनता का समर्थन प्राप्त था और इसी प्रकार बिहार के कुछ जिलों में ऐसा हुआ। 1858-59 के अभियोगों में सहस्रों असैनिक, सैनिकों के साथ-साथ विद्रोह के दोषी पाए गए तथा उन्हें दण्ड दिया गया।
यह धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था
यह मत एल. ई. आर. रीज का है उनका यह कहना कि “यह धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था” से सहमत होना अत्यंत कठीन है। विद्रोह की गर्मी में भिन्न-भिन्न धर्मों के नैतिक नियमों का लड़ने वालों पर कोई नियंत्रण नहीं था।दोनों दलों ने अपनी-अपनी ज्यादतियों को छिपाने के लिए अपने-अपने धर्म ग्रंथों का सहारा लिया।
अंततः ईसाई जीत गए ईसाई धर्म नहीं। हिन्दू और मुसलमान पराजित हो गए परन्तु हिन्दू और मुसलिम धर्म पराजित नहीं हुए। ईसाई धर्म प्रचारकों ने ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अथक प्रयास किये पर ज्यादा सफलता नहीं मिली। यह न तो धर्मों का युद्ध था और न ही जातियों का युद्ध था। बल्कि यह एक देश के नागरिकों का विद्रोह था जो उन्होंने विदेशी शक्ति विरुद्ध लड़ा।
यह बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध था
टी. आर. होम्ज के अनुसार यह बर्बरता सभ्यता के बीच युद्ध था। यहाँ वह भारतीयों को बर्बर और अंग्रेजों को सभ्य बता रहे हैं। जबकि बर्बरता में दोनों ही पक्ष दोषी थे बल्कि अंग्रेजों ने तो क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं। हडसन ने दिल्ली में अंधाधुंध गोली चलाई।
नील को इस बात का घमंड था कि उसने सैकड़ों लोगों को बिना मुकदमें के फांसी पर चढ़ा दिया। इलाहबाद में ऐसा कोई वृक्ष नहीं था जिस पर निर्दोषों को न लटकाया हो।
बनारस में गली में खेलते बच्चों तक को फांसी दी गई। रस्सल ने, जो लंदन टाइम्स का संवाददाता था, लिखा है कि मुस्लिम अभिजात वर्ग के लोगों को जीवित ही सूअर की कच्ची खाल में सी दिया गया और सूअर का मांस उनके गले में उतारा गया। सच्चाई ये है कि दोनों ही पक्ष प्रतिशोध लेने में मनुष्यता को भूल गए। अतः इस प्रकार के अत्याचार करने वाले सभ्य नहीं हो सकते।
यह हिन्दू-मुस्लिम षणयंत्र था
सर जेम्स आउट्रम और डब्ल्यू टेलर ने विद्रोह को हिन्दू-मुस्लिम षणयंत्र का परिणाम बताया है। आउट्रम का विचार था कि “यह मुस्लिम षणयंत्र था जिसमें हिन्दू शिकायतों का लाभ उठाया गया।”
यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था
बेंजमिन डिजरेली , जो इंग्लैण्ड समकालीन रूढ़िवादी दल के एक प्रमुख नेता थे, ने इसे एक “राष्ट्रीय विद्रोह” कहा है। उनका मनना है कि यह विद्रोह एक “आकस्मिक प्रेरणा नहीं था अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था और वह एक सुनियोजित और सुसंगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो अवसर की प्रतीक्षा में थे…… साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों के मामले नहीं होते…… ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।”
इसी प्रकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक The Great Rebellion में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 1857 के विद्रोह का स्वरूप राष्ट्रीय था। ( The Rebellion of 1857 was nation in character )
वीर सावरकर ने भी इस विद्रोह को “सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम” ( Planned War of National Independence ) की संज्ञा दी है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 1826-27, 1831-32, 1848 और 1854 के विद्रोह तो 1857 में होने वाले महान नाटक का एक पूर्वाभ्यास मात्र ही थे।
इसके अतिरिक्त दो प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर. सी. मजूमदार और डा. एस. एन. सेन ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। लेकिन दोनों इस बात से सहमत हैं कि 1857 का विद्रोह सचेत योजना का परिणाम था और न ही इसके पीछे कोई कुशल और सिद्धहस्त व्यक्ति था।
केवल यह तथ्य कि नाना साहिब मार्च-अप्रैल1857 में लखनऊ गए थे और यह विद्रोह मई में आरम्भ हो गया, इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने इस विद्रोह की योजना बनाई थी।
यह कहना कि मुंशी अजीमुल्ला खां और रांगे बापू ने इस विद्रोह की योजना बनाई, भी सही प्रतीत नहीं होता। अजीमुल्ला खां कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के सामने बाजीराव द्वितीय को मिलने वाली पेंशन के लिए नाना साहब की ओर से पेश हुए थे और वापिस आते हुए तुर्की गए और फिर क्रीमिया के रणक्षेत्र में उमर पाशा को मिले।
इसी प्रकार रांगे बापू जी को सतारा को पुनः प्राप्त करने के लिए लन्दन भेजा गया था। दोनों व्यक्तियों का लन्दन जाना यह प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने षणयंत्र में भाग लिया था।
इसी प्रकार चपातियों और कमल के फूलों का भिन्न-भिन्न स्थानों पर भेजना किसी निश्चित बात को प्रमाणित नहीं करता। बहादुरशाह पर चलाये गए मुकदमे में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था कि इस पूर्व आयोजित षणयंत्र उसका हाथ था। जो प्रमाण एकत्रित किए गए, उनसे अंग्रेज अधिकारियों को भी विश्वास नहीं हुआ। वास्तव में उस मुकदमे में यह स्पष्ट हो गया कि इस विद्रोह से बहादुरशाह को उतना ही आश्चर्य हुआ था जितना अंग्रेजों को।
इन दोनों विद्वानों में इस बात पर भी सहमति है कि उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। विद्रोह के नेता राष्ट्रीय नेता नहीं थे। बहादुरशाह कोई राष्ट्रीय सम्राट नहीं था। उसे तो विद्रोही सैनिकों ने नेता बनने पर बाध्य कर दिया।
नाना साहब ने विद्रोह का झंडा तब उठाया जब उनका दूत लंदन से उसके लिए बाजीराव द्वतीय की पेंशन प्राप्त करने में असफल रहा।
इसी प्रकार झाँसी में झगड़ा उत्तराधिकार और विलय के प्रश्न पर हुआ और रानी का नारा “मेरा झाँसी दऊंगी नहीं।” निसंदेह रानी लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई पर उसने यह स्पष्ट नहीं किया कि वह राष्ट्रहित के लिए लड़ रही थी।
इसी प्रकार अवध और बिहार में भी व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति की लड़ाई थी। सामान्य जनता का समर्थन न के बराबर था।
आर. सी. मजूमदार इस विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह करार देते हैं। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक Sepoy Mutiny and the Revolt of 1857 में किया है। डॉ. मजूमदार इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि “सैनिकों के व्यवहार और आचरण में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे हम यह विश्वास करें अथवा स्वीकार कर लें कि वे देश प्रेम से प्रेरित हुए थे अथवा यह कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध इसलिए लड़ रहे थे कि देश को स्वतंत्र करा सकें।”
यहाँ डॉ. एस. एन. सेन का दृष्टिकोण श्री मजूमदार से भिन्न है। उनका तर्क है की क्रांतियां प्रायः एक छोटे से वर्ग का कार्य होती हैं, जिसमें जनता का समर्थन होता भी है और नहीं भी होता। डॉ. सेन के अनुसार यदि “एक विद्रोह जिसमें बहुत से लोग सम्मिलित हो जाएँ तो उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो जाता है।” दुर्भाग्य से भारत में अधिकतर लोग निष्पक्ष और तटस्थ रहे। इसलिए 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहना उचित नहीं।
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण
1- क्रांति का सम्पूर्ण भारत में न फैलना। पंजाब,ग्वालियर, बड़ौदा, सिंध, राजस्थान, सिखों, मराठों, राजपूतों, पूर्वी भारत दक्षिण भारत राजपुताना पूरी तरह अंग्रेजों के राजभक्त बने रहे।
2- ब्रिटिश सेना के पास अधिक संसाधन और हथियार थे और उन्हें इंग्लैंड स्थित ब्रिटिश सरकार से पूर्ण सहायता मिली।
3- यह विद्रोह मुख्यतः सामंतवादी था जिसमें कुछ राष्ट्रवादी तत्व विद्यमान थे। लेकिन सबके अपने -अपने स्वार्थ थे।
4- सही नेतृत्व और संगठन का आभाव। विद्रोहियों में किसी प्रकार का तालमेल नहीं था।
5- इस विद्रोह को बहुत काम जन-समर्थन प्राप्त था।
6- अंग्रेजों के पास लॉरेंस बंधु, निकलसन, आउट्रम, हेवलॉक, एडवर्ड्स जैसे योग्य सेनापति थे।
7- विद्रोहियों में अनुशासन की कमी थी।
1857 की क्रांति के प्रमुख नेता और नायक
विद्रोही नेता का नाम | विद्रोह का स्थान |
सम्राट बहादुर शाह | दिल्ली |
नाना साहिब | कानपुर |
लक्ष्मीबाई | झाँसी |
बेगम हजरत महल | लखनऊ |
कुंवर सिंह | बिहार |
मौलवी अहमदुल्ला | अवध और रुहेलखंड |
शहजादा फिरोज शाह | मंदसौर ( मध्य-प्रदेश ) |
खान बहादुर खान | रुहेलखंड |
तांत्या टोपे ( रामचंद्र पांडुरंग ) | कानपुर और झाँसी |
1. बहादुर शाह जफर और बख्त खान
- क्रांति की तिथि: 11 मई, 1857
- केंद्र: दिल्ली
बहादुर शाह जफर: भारत में मुगल साम्राज्य के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर ने दिल्ली में 1857 के विद्रोह में सिपाहियों का नेतृत्व किया था। हालांकि दिल्ली के क्रांतिकारियों को अंततः पराजित किया गया, बहादुर शाह जफर के अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध के कारण उन्हें रंगून जेल में निर्वासन का सामना करना पड़ा, जहां कैद में रहते हुए 7 नवंबर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
बख्त खान: दिल्ली में 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय सैनिकों के कमांडर-इन-चीफ के रूप में, बख्त खान ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहले ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सूबेदार के रूप में कार्यरत, एनफील्ड राइफल के कारतूसों पर सुअर और गाय की चर्बी के इस्तेमाल के कारण वे अंग्रेजों के खिलाफ हो गए। 1 जुलाई, 1857 को बख्त खान दिल्ली में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए।
2. नाना साहब और तांत्या टोपे
- क्रांति की तिथि: 5 जून, 1857
- केंद्र: कानपुर
नाना साहेब: ढोंदूपंत के नाम से भी जाने जाने वाले, नाना साहब ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर से भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया। नाना साहेब और अंग्रेजों के बीच विभिन्न विवादों ने विद्रोह को हवा दी, जिसमें 1 जनवरी, 1851 को अपने पिता, पेशवा बाजी राव द्वितीय की मृत्यु के बाद पेशवा की उपाधि को स्वीकार करने से इनकार करना शामिल था। 5 जून, 1857 को पूर्वी भारत पर कब्जा करने के बाद कंपनी के खजाने को कानपुर की एक ब्रिटिश पत्रिका से नाना साहब ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 की क्रांति में भाग लेने की घोषणा की।
तांत्या टोपे: तात्या टोपे ने कानपुर में चल रही 1857 की क्रांति के दौरान नाना साहब के सैन्य सलाहकार के रूप में कार्य किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक ने अपनी सेना के साथ इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया, तो तात्या टोपे ने बहादुरी से शहर की रक्षा की। हालाँकि, 16 जुलाई, 1857 को उन्हें हार का सामना करना पड़ा और उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा। रानी लक्ष्मी बाई और बहादुर शाह जफर जैसे अन्य उल्लेखनीय नेताओं के चले जाने के बावजूद, तात्या टोपे ने लगभग एक वर्ष तक भारतीय क्रांतिकारियों का नेतृत्व करना जारी रखा।
3. बेगम हज़रत महल और बिरजिस क़द्र
- क्रांति की तिथि: 4 जून, 1857
- केंद्र: लखनऊ
बेगम हजरत महल: अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी बेगम हजरत महल ने अवध के राज्य मामलों को संभालने की जिम्मेदारी तब संभाली जब नवाब को अंग्रेजों ने खदेड़ दिया था। राजा जैलाल सिंह के नेतृत्व में, बेगम हजरत महल के सैनिकों ने 1857 से 1858 तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सफलतापूर्वक लखनऊ पर अधिकार प्राप्त किया। वे भारत से बाहर नेपाल चली गईं जहाँ 60 वर्ष की आयु में 7 अप्रैल, 1879 को काठमांडू, नेपाल में उनका निधन हो गया।
बिरजिस क़द्र: अवध के छठे राजा और बेगम हज़रत महल के बेटे बिरजिस क़द्र ने 1857 की क्रांति के दौरान अपनी माँ के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया। ऐसे समय में जब पूरा देश आजादी की लड़ाई में डूबा हुआ था, बिरजिस क़द्र ने अपनी माँ के साथ दमनकारी ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
4. रानी लक्ष्मीबाई
- क्रांति की तिथि: 4 जून, 1857
- केंद्र : झांसी
रानी लक्ष्मीबाई: रानी लक्ष्मीबाई, वर्तमान उत्तर प्रदेश में झाँसी की रानी, एक भयंकर योद्धा थीं, जिन्होंने 1857 की क्रांति के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य की सेना का नेतृत्व किया था। 29 साल की छोटी उम्र में, उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी लेकिन आजादी की लड़ाई में दुखद रूप से उनकी शहादत मिली। 18 जून, 1858 को ग्वालियर के निकट वे वीरगति को प्राप्त हुई।
5. वीर कुंवर सिंह और अमर सिंह
- क्रांति की तिथि: 12 जून, 1857
- केंद्र : जगदीशपुर
वीर कुंवर सिंह: वीर कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकू सिंह और भारतीय सैनिकों के साथ 1857 के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 25 जुलाई, 1857 को, वीर कुंवर सिंह ने दानापुर में विद्रोहियों की कमान संभाली, दो दिन बाद ही आरा के जिला मुख्यालय पर कब्जा कर लिया। हालाँकि, उनकी सेना को 3 अगस्त, 1857 को मेजर विंसेंट आइरे ने हरा दिया और जगदीशपुर शहर को नष्ट कर दिया गया।
बाबू अमर सिंह: बाबू अमर सिंह, बाबू कुंवर सिंह के भाई, 1857 में स्वतंत्रता के लिए भारत के पहले संघर्ष के दौरान एक प्रमुख योद्धा और क्रांतिकारी के रूप में उभरे। शुरू में आरा की कुख्यात घेराबंदी सहित अपने भाई के अभियानों का समर्थन करते हुए, बाबू अमर सिंह प्रमुख बन गए। 26 अप्रैल, 1858 को बाबू कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद सेना में। भारी बाधाओं का सामना करने के बावजूद, उन्होंने संघर्ष जारी रखा और शाहाबाद जिले में एक समानांतर सरकार की स्थापना की।
6. मौलवी अहमदुल्लाह और मौलवी लियाकत अली
- क्रांति की तिथि: जून 1857
- केंद्र: फैजाबाद और इलाहाबाद
मौलवी अहमदुल्लाह शाह: मौलवी अहमदुल्लाह शाह, जिन्हें 1857 के विद्रोह के लाइट हाउस के रूप में जाना जाता है, फैजाबाद के मौलवी थे। उन्होंने 1857 और 1858 के भारतीय विद्रोह के दौरान नाना साहिब और खान बहादुर खान के साथ स्वतंत्रता के लिए सक्रिय रूप से लड़ाई लड़ी। बरकत अहमद के साथ अवध की क्रांतिकारी सेना का नेतृत्व करने वाले अहमदुल्ला शाह ने हेनरी मॉन्टगोमरी लॉरेंस की अंग्रेजी सेना के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जीत हासिल की। हालांकि, उन्हें धोखे से गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।
मौलवी लियाकत अली: प्रयागराज के चैल परगना के महागाँव गाँव के रहने वाले मौलवी लियाकत अली 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ एक प्रमुख नेता थे। चैल के लोगों ने लियाकत अली को ब्रिटिश सेना के खिलाफ उनके प्रतिरोध में गोला-बारूद सहित अपना समर्थन प्रदान किया।
उन्होंने खुसरो बाग पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया और इसे अपने मुख्यालय के रूप में स्थापित किया। हालाँकि, अंग्रेजों ने दो सप्ताह के भीतर खुसरो बाग पर कब्जा कर लिया। 14 साल तक कैद से बचने के बाद, मौलवी लियाकत अली को सितंबर 1871 में मुंबई के बायकुला रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और रंगून जेल (वर्तमान यांगून) भेज दिया गया, जहाँ 17 मई, 1892 को उनका निधन हो गया। कैद में रहते हुए।
7-खान बहादुर खान रुहेला
- क्रांति की तिथि: जून 1857
- केंद्र: बरेली
खान बहादुर खान: रूहेलखंड के दूसरे नवाब हाफिज रहमत खान के पोते खान बहादुर खान रूहेला ने 1857 के विद्रोह के दौरान सक्रिय रूप से अंग्रेजों का विरोध किया। बरेली में विद्रोह की सफलता के बाद, उन्होंने अपनी सरकार बनाई। हालाँकि, जब 1857 का भारतीय विद्रोह अंततः विफल हो गया, तो बरेली वापस ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया। खान बहादुर खान ने नेपाल भागने का प्रयास किया लेकिन स्थानीय लोगों ने उसे पकड़ लिया और अंग्रेजों को सौंप दिया। बाद में उन्हें 24 फरवरी, 1860 को मौत की सजा सुनाई गई।
1857 की क्रांति में प्रमुख ब्रिटिश नायक
तैनाती स्थान | नाम | विद्रोह के दमन की तिथि |
दिल्ली | निकोलस हडसन | 20 सितंबर, 1857 |
कानपुर | कॉलिन कैंपबेल | दिसंबर 1857 |
लखनऊ | कॉलिन कैंपबेल | मार्च 1858 |
झाँसी | जनरल उरोस | जून 1858 |
जगदीशपुर | विलियम टेलर | दिसंबर 1858 |
फैजाबाद | जनरल रनोट | जून 1858 |
इलाहाबाद | कर्नल नील | 1858 |
1857 के विद्रोह से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण और यादगार तथ्य
- बहादुर शाह ने दिल्ली में प्रतीकात्मक नेता के रूप में कार्य किया, जबकि वास्तविक नेतृत्व बख्त खान की अध्यक्षता वाली सैनिकों की एक परिषद के हाथों में था।
- 1857 की क्रांति के समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग थे।
- विद्रोह में सत्ता हथियाने के बाद शासन के लिए एक स्पष्ट सामाजिक खाका का अभाव था।
- 1857 के विद्रोह में पंजाब, राजपुताना, हैदराबाद और मद्रास के शासकों ने भाग नहीं लिया।
- विद्रोह को एकता, संगठन और संसाधनों की कमी सहित विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसने इसकी विफलता में योगदान दिया।
- बंगाल के जमींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया।
- बी डी सावरकर की पुस्तक, “भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम” ने इस धारणा को लोकप्रिय बनाया कि 1857 का विद्रोह एक नियोजित राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था।
- 1857 के विद्रोह में न केवल सेना बल्कि समाज के विभिन्न वर्ग भी शामिल थे। विद्रोह के दौरान लगभग 150,000 लोगों ने अपनी जान गंवाई।
निष्कर्ष
इस प्रकार 1857 की क्रांति का अंत हुआ। ये पहली भयंकर चुनौती थी जिससे पार पाने में अग्रेजों को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। क्रंति यद्पि असफल रही लेकिन इसके परिणाम सकारात्मक रहे। इसने अंग्रेजों की नीतियों में परिवर्तन की आधारशिला रखी। भारतीयों में आजादी के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में 1857 की क्रांति ने पथप्रदर्शक का काम किया।
1857 के विद्रोह से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न-FAQs
प्रश्न- 857 के विद्रोह किसने और किसके विरूद्ध किया ?
उत्तर– 857 के विद्रोह में भाग लेने वालों में मुख्य रूप से ब्रिटिश भारतीय सैनिक थे, जिन्हें सिपाहियों के रूप में जाना जाता था, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में सेवा कर रहे थे, इसके आलावा भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के नागरिक, जिनमें रईस, किसान, कारीगर और मजदूर शामिल थे।
प्रश्न: 1857 की क्रांति क्या थी?
उत्तर- 1857 की क्रांति भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह था।
प्रश्न: 1857 की क्रांति कब हुई थी?
उत्तर- 1857 की क्रांति 10 मई 1857 से जून 1858 तक हुई थी।
प्रश्न: 1857 की क्रांति की शुरुआत कहाँ से हुई थी?
उत्तर– 1857 की क्रांति भारत के दिल्ली के पास एक शहर मेरठ, उत्तर प्रदेश से शुरू हुई थी।
प्रश्न: 1857 की क्रांति के नेता कौन थे?
उत्तर- इस क्रांति का कोई निश्चित नेता नहीं था बल्कि 1857 की क्रांति के नेता भारतीय सैनिक, किसान और नागरिक थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया था।
प्रश्न: 1857 की क्रांति के प्रमुख कारण क्या थे?
उत्तर– 1857 की क्रांति के मुख्य कारण भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शिकायतें थीं
प्रश्न: 1857 की क्रांति के क्या परिणाम हुए?
उत्तर– 1857 की क्रांति के परिणामों में भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत और सीधे ब्रिटिश शासन की शुरुआत हुई।
प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति एक राष्ट्रव्यापी विद्रोह थी?
उत्तर– हां, 1857 की क्रांति एक व्यापक विद्रोह था जो भारत के कई क्षेत्रों में फैल गया था।
प्रश्न: 1857 की क्रांति के कुछ प्रमुख युद्ध कौन से थे?
उत्तर– 1857 की क्रांति की कुछ प्रमुख लड़ाइयाँ दिल्ली की घेराबंदी, लखनऊ की लड़ाई और झाँसी की लड़ाई थीं।
प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति का भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर कोई प्रभाव पड़ा?
उत्तर- हां, 1857 की क्रांति को स्वतंत्रता के लिए भारत के बाद के संघर्ष के अग्रदूत के रूप में माना जाता है, क्योंकि इसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ बाद के आंदोलनों को प्रेरित किया।
प्रश्न: भारत पर 1857 की क्रांति के कुछ दीर्घकालिक प्रभाव क्या थे?
उत्तर– भारत पर 1857 की क्रांति के कुछ दीर्घकालिक प्रभावों में बढ़ी हुई राष्ट्रवाद, राजनीतिक चेतना और स्व-शासन की मांग शामिल थी।
प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति के कारण अंग्रेजों ने भारत में कोई सुधार किया?
उत्तर– हां, 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अंत और ब्रिटिश क्राउन को सत्ता हस्तांतरण सहित ब्रिटिशों द्वारा कुछ सुधारों का नेतृत्व किया।
प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति में भारत के सभी धार्मिक समूहों के लोग शामिल थे?
उत्तर– हां, 1857 की क्रांति में भारत के विभिन्न धार्मिक समूहों के लोग शामिल थे, जिनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख और अन्य शामिल थे।
प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव पड़ा?
उत्तर- 1857 की क्रांति ने भारत के कुछ हिस्सों में आर्थिक गतिविधियों को बाधित किया, लेकिन इसका सीधा असर उन पर नहीं पड़ा।
प्रश्न: 1857 के विद्रोह के बाद भारत का गवर्नर जनरल कौन था?
उत्तर: लॉर्ड कैनिंग।
प्रश्न: 1857 के विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम किसने कहा था?
उत्तर: विद्रोह को कई नामों से जाना जाता है: सिपाही विद्रोह (ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा), भारतीय विद्रोह, महान विद्रोह (भारतीय इतिहासकारों द्वारा), 1857 का विद्रोह, भारतीय विद्रोह, और विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में स्वतंत्रता का पहला युद्ध।
प्रश्न: 1857 का विद्रोह असफल क्यों रहा?
उत्तर: 1857 का विद्रोह असफल रहा क्योंकि इसमें राष्ट्रीय एकता की मजबूत भावना और एक केंद्रीकृत नेतृत्व का अभाव था।
प्रश्न: लखनऊ से 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किसने किया था?
उत्तर: बेगम हजरत महल।
प्रश्न: 1857के विद्रोह के कारणों का विश्लेषण करते हुए अंग्रेजों और मुसलमानों के बीच सुलह की वकालत किसने की थी?
उत्तर: सैयद अहमद बरेलवी।
प्रश्नः बेगम हजरत महल ने 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किस शहर से किया था?
उत्तर: लखनऊ।
प्रश्न: 1857 के विद्रोह में नाना साहब कहाँ से विद्रोह कर रहे थे?
उत्तर: कानपुर।
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