
Kanshi Ram Life Story: कांशीराम का जीवन भारतीय राजनीति, सामाजिक न्याय और बहुजन सशक्तिकरण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। वे न केवल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक थे, बल्कि दलितों, पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के राजनीतिक उत्थान नायक के रूप में जाने जाते हैं। कांशीराम ने डॉ. बी.आर. आंबेडकर के विचारों को व्यावहारिक रूप दिया और “बहुजन समाज” (85% आबादी) को सत्ता की चाबी सौंपने का सपना साकार करने की दिशा में अथक प्रयास किए।
कांशीराम का जीवन संघर्ष, त्याग और ऐतिहासिक सफलता की मिसाल है, जो जातिवाद के खिलाफ एक क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतीक बन गया। इस लेख में हम कांशीराम के जीवन परिचय, परिवार, शिक्षा, राजनीतिक यात्रा, मायावती के साथ संबंध, जयंती समारोह, पुण्यतिथि, मृत्यु के बाद विवाद और उनके योगदानों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यदि आप कांशीराम जीवन परिचय, बसपा संस्थापक की कहानी, कांशीराम जयंती या दलित नेता कांशीराम के बारे में जानना चाहते हैं, तो यह लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा।
Kanshi Ram Brief Intro: कांशीराम का त्वरित परिचय
| विवरण | जानकारी |
|---|---|
| पूरा नाम | कांशीराम (बहुजन नायक या मान्यवर साहब कांशीराम) |
| जन्म तिथि | 15 मार्च 1934 |
| जन्मस्थान | पिर्थीपुर बुंगा गांव, रोपड़ (रूपनगर) जिला, पंजाब |
| मृत्यु तिथि और स्थान | 9 अक्टूबर 2006 (72 वर्ष) |
| मृत्यु का स्थान | नई दिल्ली |
| परिवार पृष्ठभूमि | रामदासिया सिख परिवार, चमार जाति से संबंधित |
| शिक्षा | बीएससी (विज्ञान), गवर्नमेंट कॉलेज, रोपड़ (1956) |
| प्रमुख संगठन के संस्थापक | बामसेफ (1978), डीएस-4 (1981), बहुजन समाज पार्टी (1984) |
| राजनीतिक सफर | लोकसभा सांसद (इटावा, 1991; होशियारपुर, 1996), राज्यसभा सांसद (1998-2004) |
| राजनीतिक उत्तराधिकारी | कुमारी मायावती (पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश) |
| प्रमुख योगदान | दलित-ओबीसी गठजोड़, बहुजन राजनीति की स्थापना, आंबेडकरवाद का प्रसार |
| जयंती उत्सव | 15 मार्च को मनाई जाती है, बसपा द्वारा बड़े स्तर पर आयोजन |
| पुण्यतिथि | 9 अक्टूबर को मनाई जाती है, श्रद्धांजलि सभाएं और स्मृति कार्यक्रम |
Kanshi Ram Early Life: प्रारंभिक जीवन और परिवार: संघर्ष की जड़ें
कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के रोपड़ (अब रूपनगर) जिले के पिर्थीपुर बुंगा गांव में एक रामदासिया सिख परिवार में हुआ था। उनका गांव खवासपुर के पास स्थित था, जिसे स्थानीय दलित समुदाय में ‘चन्न साहिब‘ कहा जाता है। रामदासिया समुदाय चमार जाति से जुड़ा हुआ है, जो परंपरागत रूप से चमड़े का काम करता था और अनुसूचित जाति में आता है। हालांकि, सिख धर्म में परिवर्तन के कारण उनके परिवार को कुछ सामाजिक सम्मान मिला, लेकिन जातिगत भेदभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ।
कांशीराम के पिता हरि सिंह एक साधारण किसान और चमड़े के छोटे व्यापारी थे, जिनके पास 4-5 एकड़ जमीन भी थी। परिवार की आय मुख्य रूप से कृषि, चमड़े की टैनरी और आम के बाग से होती थी। उनके दादा ढेलोराम एक सेवानिवृत्त सैनिक थे, जो लाहौर से लौटकर चमड़े का छोटा उद्योग चलाते थे। दादा के तीन बेटे थे: हरि सिंह (कांशीराम के पिता), बिशन सिंह और रचन सिंह, तथा एक बेटी हरों। बिशन और रचन सिंह सेना में भर्ती हुए, जबकि हरि सिंह ने कृषि और व्यापार संभाला।
कांशीराम के परिवार में कुल आठ भाई-बहन थे, जिनमें वे सबसे बड़े थे। उनकी मां बिशन कौर एक गृहिणी थीं, जो परिवार की देखभाल करती थीं। परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, लेकिन पंजाब में चमार समुदाय की तुलना में बेहतर थी, क्योंकि यहां कृषि अवसर अधिक थे।
कांशीराम ने बचपन में जातिगत भेदभाव का ज्यादा सामना नहीं किया, क्योंकि सिख गुरुओं की शिक्षाएं समानता पर जोर देती थीं। फ्रांसीसी राजनीतिशास्त्री क्रिस्टोफ जाफ्रेलॉट के साथ साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “सिख धर्म ने चमारों को सामाजिक सम्मान दिया, जिससे मैं अपनी जाति से अनजान रहा।” हालांकि, बाद में नौकरी में भेदभाव ने उन्हें जागृत किया। उनका परिवार सैनिक पृष्ठभूमि वाला था, जो उन्हें अनुशासन और दृढ़ता सिखाता था।
कांशीराम ने कभी शादी नहीं की और परिवार से अलग रहकर अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कार्य को समर्पित कर दिया, लेकिन वे हमेशा परिवार के संपर्क में रहे। उनके भाई-बहन सामान्य जीवन जीते थे, और परिवार आज भी पंजाब में रहता है। यह पृष्ठभूमि उनकी बहुजन विचारधारा की नींव बनी, जहां उन्होंने देखा कि आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद जातिगत भेदभाव एक बाधा है। कांशीराम का परिवार न केवल उनके प्रारंभिक जीवन का आधार था, बल्कि उनकी राजनीतिक यात्रा में भी प्रेरणा स्रोत बना, क्योंकि उन्होंने परिवार की सादगी और संघर्ष को बहुजन समाज के लिए एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।
| परिवार सदस्य | संबंध | विवरण |
|---|---|---|
| ढेलोराम | दादा | सेवानिवृत्त सैनिक, चमड़े का उद्योग चलाते थे। |
| हरि सिंह | पिता | किसान और चमड़े के व्यापारी, परिवार की आय का मुख्य स्रोत। |
| बिशन कौर | मां | गृहिणी, परिवार की देखभाल। |
| बिशन सिंह | चाचा | सेना में सेवा, परिवार की सैनिक परंपरा जारी रखी। |
| रचन सिंह | चाचा | सेना में सेवा। |
| हरों | दादी की बेटी | परिवार की एकमात्र बेटी (चाची)। |
| कांशीराम | स्वयं | सबसे बड़े भाई, सामाजिक कार्यकर्ता। |
| सात अन्य भाई-बहन | भाई-बहन | कुल आठ भाई-बहनों में से, विवरण उपलब्ध नहीं, सामान्य जीवन। |
Education & Career: शिक्षा और प्रारंभिक करियर
कांशीराम की शिक्षा पंजाब के ग्रामीण परिवेश में प्रारम्भ हुई। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा मलकपुर गांव के सरकारी स्कूल से प्राप्त की, जहां सिख धर्म की समानता की शिक्षा ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। उसके बाद, उन्होंने डीएवी स्कूल, रोपड़ से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की। 1955 में वे गवर्नमेंट कॉलेज, रोपड़ में प्रवेश लिया, जो पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध था। यहां से उन्होंने 1956 में विज्ञान में स्नातक (बीएससी) की डिग्री प्राप्त की।
उनकी शिक्षा सामान्य थी, लेकिन इसमें कोई जातिगत बाधा नहीं आई, जो पंजाब की अपेक्षाकृत उदार समाज व्यवस्था का परिणाम था। शिक्षा के दौरान कांशीराम ने विज्ञान विषयों में रुचि दिखाई, लेकिन सामाजिक मुद्दों पर भी विचार करना शुरू कर दिया था।
शिक्षा पूर्ण करने के बाद, 1957 में उन्होंने सर्वे ऑफ इंडिया की परीक्षा पास की, लेकिन नौकरी नहीं की। 1958 में वे पुणे की हाई एनर्जी मैटेरियल्स रिसर्च लेबोरेटरी (तब एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेबोरेटरी) में प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिक सहायक के रूप में नियुक्त हुए। यह नौकरी आरक्षण नीति के तहत मिली, लेकिन यहां जातिगत भेदभाव ने उन्हें अंदर तक झकझोरा।
1964 में एक घटना ने उनके जीवन को बदल दिया: डॉ. आंबेडकर की जयंती पर छुट्टी मांगने वाले दलित कर्मचारी को दंडित किया गया। कांशीराम ने विरोध किया और एनिहिलेशन ऑफ कास्ट पढ़कर प्रभावित हुए। उन्होंने ज्योतिबा फुले की छुट्टी रद्द होने पर भी संघर्ष किया। अंततः 1965 में नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता बन गए। यह प्रारंभिक करियर कांशीराम के लिए सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जहां उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सामाजिक न्याय से जोड़ा।
कांशीराम की शैक्षिक योग्यता
| शिक्षा स्तर | संस्थान | वर्ष | विवरण |
|---|---|---|---|
| प्राथमिक शिक्षा | सरकारी स्कूल, मलकपुर | बचपन | बुनियादी शिक्षा, सिख मूल्यों का प्रभाव। |
| माध्यमिक शिक्षा | डीएवी स्कूल, रोपड़ | 1950s | मैट्रिकुलेशन पास, जातिगत भेदभाव से मुक्त। |
| स्नातक | गवर्नमेंट कॉलेज, रोपड़ | 1955-1956 | बीएससी (विज्ञान), पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध। |
| व्यावसायिक प्रशिक्षण | हाई एनर्जी मैटेरियल्स लैब | 1958-1965 | वैज्ञानिक सहायक, भेदभाव ने जागृति पैदा की। |
सामाजिक जागरूकता की शुरुआत: बामसेफ और डीएस-4 का गठन

नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद कांशीराम ने दलितों को एकजुट करने पर ध्यान दिया। 1971 में उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की, जो 1978 में बामसेफ (अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ) बन गया। बामसेफ का उद्देश्य शहरी दलित मध्यम वर्ग को एकजुट करना था, बिना राजनीतिक या धार्मिक झुकाव के। 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित संघर्ष समिति) की स्थापना की, जिसका नारा था “ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ो, बाकी सब हैं डीएस-4″।
1982 में द चमचा युग पुस्तक लिखी, जिसमें दलित नेताओं को “चमचा” कहा। पूना पैक्ट धिक्कार रैली आयोजित की। ये संगठन बहुजन आंदोलन की नींव बने, जो जातिवाद के खिलाफ थे। कांशीराम ने कहा, “शिक्षित दलितों को अपनी जड़ें याद रखनी चाहिए।” बामसेफ ने सरकारी कर्मचारियों को जागृत किया, जबकि डीएस-4 ने सड़क पर संघर्ष किया। इनसे बसपा का जन्म हुआ। इन संगठनों ने कांशीराम को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई और बहुजन समाज को एकजुट करने की रणनीति विकसित की।
राजनीतिक यात्रा: बसपा की स्थापना और चुनावी सफलता
1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की, जिसका मूल मंत्र था “पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा नजर आने के लिए, तीसरा जीतने के लिए”। उन्होंने कहा, “सत्ता सभी चाबियों की चाबी है।” बसपा ने दलितों को स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति दी। चुनावी यात्रा: 1984 में जांजगीर-चांपा से हार, 1988 में इलाहाबाद से वी.पी. सिंह के खिलाफ 70,000 वोट, 1989 में पूर्वी दिल्ली और अमेठी से तीसरा स्थान, 1991 में इटावा से जीत (सांसद), 1996 में होशियारपुर से जीत। 1993 में सपा गठबंधन से यूपी सरकार बनी, लेकिन 1995 में समर्थन वापस। भाजपा के साथ मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया। 1998-2004 में राज्यसभा सांसद।
2001 में मायावती को उत्तराधिकारी घोषित किया। 2002 में 5 करोड़ समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपनाने की योजना, लेकिन ख़राब स्वास्थ्य ने रोका। बसपा ने 1999 में 14 सीटें जीतीं। उनकी राजनीति बहुजन एकता पर केंद्रित थी। कांशीराम की रणनीति ने बसपा को उत्तर प्रदेश की प्रमुख दलित पार्टी बना दिया।
जब पत्रकार आशुतोष को जड़ा थप्पड़
कांशीराम की राजनीतिक यात्रा में एक विवादास्पद लेकिन चर्चित घटना 1996 में घटी, जब उन्होंने टीवी पत्रकार आशुतोष को थप्पड़ जड़ दिया। यह घटना उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के ठीक बाद हुई, जब चुनाव परिणाम अनिर्णायक रह गए थे। कई पत्रकार, जिसमें आशुतोष (तब आज तक चैनल से जुड़े हुए) शामिल थे, कांशीराम के दिल्ली स्थित आवास के बाहर इकट्ठा हो गए थे। वे बसपा की अगली रणनीति पर सवाल पूछना चाहते थे।
अफवाहें थीं कि कांशीराम और मायावती के बीच व्यक्तिगत संबंध हैं, जिसके कारण पत्रकारों ने घर के बाहर घेराबंदी कर ली थी। गुस्साए कांशीराम बाहर आए और पत्रकारों को भगाने के लिए आशुतोष को सीधे थप्पड़ मार दिया। उन्होंने अपने समर्थकों को पत्रकारों को पीटने और गोली मारने तक के आदेश दिए, हालांकि कोई गंभीर चोट नहीं लगी।
इस घटना ने मीडिया में हंगामा मचा दिया और कांशीराम की तीखी प्रवृत्ति को उजागर किया। आशुतोष ने बाद में कहा कि यह उनके करियर का टर्निंग पॉइंट था, जिससे वे सुर्खियों में आ गए। यह घटना कांशीराम के गुस्सैल स्वभाव और मीडिया के साथ उनके तनावपूर्ण संबंधों को दर्शाती है, जो बहुजन आंदोलन की आलोचना से उपजी थी।
कांशीराम और कुमारी मायावती के संबंध: गुरु-शिष्या से राजनीतिक साझेदारी तक

कांशीराम और कुमारी मायावती के संबंध गुरु-शिष्या के रूप में शुरू हुए और राजनीतिक साझेदारी में परिवर्तित हो गए। मायावती 1970 के दशक में बसपा आंदोलन से जुड़ीं, जब कांशीराम ने उन्हें दलित उत्थान के लिए प्रेरित किया। वे उनकी निकटतम सहयोगी बनीं, और कांशीराम ने उन्हें बसपा की कमान सौंपी। 1995 में सपा गठबंधन टूटने के बाद मायावती पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं, जिसमें कांशीराम की रणनीति थी।
2001 में स्वास्थ्य खराब होने पर उन्होंने मायावती को उत्तराधिकारी घोषित किया, और 2003 में पार्टी अध्यक्ष बनाया। मायावती ने कहा, “साहब कांशीराम और मैंने तय किया था कि केंद्र में पूर्ण बहुमत मिलने पर बौद्ध धर्म अपनाएंगे।” उनकी साझेदारी बसपा को मजबूत बनाती रही; कांशीराम विचारधारा देते थे, मायावती क्रियान्वयन। मायावती ने उनकी मृत्यु पर बौद्ध रीति से अंतिम संस्कार किया और प्रेरणा स्थल में अस्थियां रखीं।
यह संबंध बहुजन राजनीति की निरंतरता का प्रतीक है, जहां मायावती ने चार बार यूपी मुख्यमंत्री बनकर उनके सपनों को साकार किया। अफवाहों के बावजूद, यह पेशेवर और वैचारिक साझेदारी थी। इस साझेदारी ने बसपा को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत किया और दलित महिलाओं के सशक्तिकरण का संदेश दिया।
कांशीराम जयंती: उत्सव और स्मृति
कांशीराम जयंती हर वर्ष 15 मार्च को उनके जन्मदिन पर मनाई जाती है। यह दलित जागरण और बहुजन एकता का प्रतीक है। बसपा द्वारा बड़े स्तर पर आयोजन होते हैं, जहां मायावती भाषण देती हैं और कांशीराम के योगदानों को याद किया जाता है। 2025 में 91वीं जयंती पर विशेष कार्यक्रम हुए, जिसमें द प्रिंट ने उनकी जीवनी पर सीरीज जारी की।
मर्त्यु की वर्षगांठ (9 अक्टूबर) पर भी सपा और बसपा आयोजन करते हैं। 2024 में द न्यूज मिनट ने उनकी बौद्ध विरासत पर लेख प्रकाशित किया। जयंती पर रैलियां, सेमिनार और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जो युवाओं को प्रेरित करते हैं। मायावती ने भारत रत्न की मांग की। यह उत्सव “कांशीराम जयंती उत्सव” कीवर्ड को लक्षित करता है। जयंती के अवसर पर लाखों समर्थक सड़कों पर उतरते हैं, जो कांशीराम की विरासत को जीवंत रखता है।

कांशीराम पुण्यतिथि: स्मृति और श्रद्धांजलि का दिन
आज, 9 अक्टूबर 2025 को, कांशीराम की 19वीं पुण्यतिथि पर पूरे देश में उनके अनुयायी उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) द्वारा दिल्ली, लखनऊ और पंजाब सहित विभिन्न स्थानों पर विशेष स्मृति सभाएं, रैलियां और प्रार्थना कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
कुमारी मायावती ने एक बयान जारी कर कहा कि “मान्यवर कांशीराम का सपना बहुजन समाज के सशक्तिकरण का था, जिसे हम कभी नहीं भूलेंगे।” इस दिन दलित और पिछड़े वर्गों के कार्यकर्ता कांशीराम के सिद्धांतों – जैसे जाति की वास्तविकता को स्वीकार करना और सत्ता की चाबी हासिल करना – पर चर्चा करते हैं।
कई सामाजिक संगठन उनके नाम पर रक्तदान शिविर और जागरूकता अभियान चला रहे हैं। पुण्यतिथि कांशीराम की मृत्यु के बाद भी उनके आंदोलन को मजबूत करने का अवसर बन गई है, जो हमें याद दिलाती है कि उनका संघर्ष अनंत है। यह दिन न केवल शोक का, बल्कि प्रेरणा का भी स्रोत है, जहां युवा पीढ़ी उनके जीवन से सीख लेती है।
मृत्यु के बाद विवाद: परिवार और मायावती के बीच तनाव
कांशीराम की मृत्यु के बाद उनके परिवार और कुमारी मायावती के बीच गंभीर विवाद उभरे, जो बसपा के आंतरिक कलह और विरासत के स्वामित्व पर केंद्रित थे। 9 अक्टूबर 2006 को कांशीराम के निधन के तुरंत बाद, उनके भाई दलबरा सिंह ने दिल्ली के तुगलक रोड थाने में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें मायावती और उनके सहयोगियों पर हत्या का आरोप लगाया गया।
परिवार का दावा था कि मायावती ने कांशीराम को उनके अंतिम दिनों में कैद रखा, परिवार को उनसे मिलने नहीं दिया, और उनकी बीमारी को जानबूझकर बढ़ावा दिया, जिससे उनकी मौत हुई। बहन स्वर्ण कौर ने भी मायावती पर परिवार को नष्ट करने का आरोप लगाया, कहा कि उन्होंने कांशीराम की संपत्ति और राजनीतिक विरासत पर कब्जा कर लिया।
अंतिम संस्कार पर भी ड्रामा हुआ: परिवार हिंदू रीति से अंतिम संस्कार चाहता था, लेकिन मायावती ने बौद्ध रीति अपनाई, जिससे परिवार ने शव पर कब्जे की मांग की। परिवार ने मायावती पर बसपा की संपत्ति हड़पने का भी आरोप लगाया और मुकदमा दायर करने की धमकी दी। यह दुश्मनी 2006 से चली आ रही है; 2019 में दलबरा सिंह ने कांग्रेस का समर्थन किया और CBI जांच की मांग की। ये विवाद कांशीराम की विरासत को धूमिल करने वाले साबित हुए, लेकिन मायावती ने इन्हें बहुजन आंदोलन के लिए खतरे के रूप में खारिज किया।
प्रमुख योगदान: दलित सशक्तिकरण का वास्तुकार
कांशीराम के योगदान अमिट हैं। उन्होंने आंबेडकरवाद को जीवित रखा, दलितों को “चमचा” बनने से रोका। बसपा से यूपी में दलित-ओबीसी गठजोड़ मजबूत किया। पुस्तकें जैसे बर्थ ऑफ बामसेफ उनकी विचारधारा को संरक्षित करती हैं। उन्होंने कहा, “जाति को भूलना मत, यह भारत की वास्तविकता है।” उनके प्रयासों से दलित राजनीति मुख्यधारा में आई। बौद्ध धर्म अपनाने की योजना सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा थी। उनकी विरासत बसपा और मायावती में जीवित है। कांशीराम ने न केवल राजनीतिक संगठन बनाए, बल्कि सामाजिक जागृति के लिए रैलियां और अभियान चलाए, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
कांशीराम का लेखक के रूप में योगदान
कांशीराम, जिन्हें बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक और दलित उत्थान के नायक के रूप में जाना जाता है, न केवल एक कुशल राजनीतिक रणनीतिकार थे, बल्कि एक प्रभावशाली लेखक भी थे। उनका लेखन मुख्य रूप से दलित सशक्तिकरण, जातिवाद की आलोचना और बहुजन समाज की राजनीतिक स्वतंत्रता पर केंद्रित था। कांशीराम का साहित्यिक योगदान सीमित लेकिन गहन था; उन्होंने पुस्तकों के माध्यम से डॉ. बी.आर. आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और पेरियार जैसे समाज सुधारकों के विचारों को नई व्याख्या दी।
उनका लेखन सरल, तीखा और व्यंग्यात्मक था, जो सड़क पर उतरने वाले आंदोलन का हिस्सा बन गया। विशेष रूप से, उनकी रचनाओं ने “चमचा” (stooge) जैसे शब्दों को लोकप्रिय बनाया, जो ऊपरी जातियों के लिए काम करने वाले दलित नेताओं की आलोचना करता था।
कांशीराम का मानना था कि लेखन केवल कागज पर नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम होना चाहिए। उनकी किताबें बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉयी फेडरेशन) और डीएस-4 जैसे संगठनों की वैचारिक नींव बनीं, और इन्होंने दलित युवाओं को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। “चमचा युग” जैसी किताब ने पूना पैक्ट (1932) की आलोचना की और दलितों को स्वतंत्र राजनीति की ओर प्रेरित किया। कुल मिलाकर, कांशीराम का लेखन बहुजन आंदोलन का वैचारिक आधार बना, जो आज भी बसपा की विचारधारा को मजबूत करता है।
कांशीराम द्वारा लिखी प्रमुख किताबें
| किताब का शीर्षक | प्रकाशन वर्ष | संक्षिप्त विवरण |
|---|---|---|
| द चमचा एज (द एरा ऑफ द स्टूजेस) / चमचा युग | 1982 | पूना पैक्ट की 50वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित; दलित नेताओं को “चमचा” कहकर आलोचना, फुले, आंबेडकर और पेरियार को समर्पित; दलित स्वायत्तता पर जोर। |
| बर्थ ऑफ बामसेफ (BAMCEF की उत्पत्ति) | 1978 के आसपास | बामसेफ संगठन की स्थापना और आंबेडकरवादी सिद्धांतों का वर्णन; पिछड़े वर्गों के शिक्षित सदस्यों को जागृत करने का उद्देश्य। |
नोट: कांशीराम की अधिकांश रचनाएं पर्चे, भाषण संग्रह और छोटी पुस्तिकाओं के रूप में हैं, जैसे उनके भाषणों का संकलन “राइटिंग्स एंड स्पीचेज ऑफ कांशीराम”। ये मूल रूप से उनके आंदोलन का हिस्सा थे।
विरासत और प्रभाव: आज भी प्रासंगिक
9 अक्टूबर 2006 को 72 वर्ष की आयु में कांशीराम का निधन हुआ। उनकी विरासत लाखों में जीवित है। बसपा ने उनकी स्मृति में योजनाएं शुरू कीं। बायोपिक और किताबें उनकी कहानी बताती हैं। कांशीराम की जीवनी संघर्ष से परिवर्तन सिखाती है। उनकी विचारधारा ने भारतीय राजनीति को बहुजन केंद्रित बनाया, और आज भी दलित युवा उन्हें अपना नायक मानते हैं। आज मायावती ने लखनऊ में रैली की जिसमें करोड़ों अनुयायियों ने हिस्सा लिया।
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