भारत प्राचीनकाल से ही धर्म और संस्कृति के विषय में एक अलग पहचान बनाये हुए है। प्राचीन भारत की धार्मिक परम्परा समय के साथ आगे बढ़ती रही और जब भारत पर विदेशी आक्रमण शुरू हुए तब एक अलग संस्कृति ने भारत में प्रवेश किया। मध्यकालीन भारत का इतिहास मुसलमानों के आक्रमण और उनके भारत में शासन स्थापित करने, इस्लाम का प्रसार, और मुसलमान धर्म में हिन्दुओं को बदलने के लिए जाना जाता है।
मगर भारत संतों और तपस्वियों की भूमिक रहा है। इस लेख मध्यकालीन भारत के 15 प्रसिद्ध हिन्दू संत | 15 Famous Hindu Saints of Medieval India में हम मध्यकालीन भारत के 15 प्रख्तात हिन्दू संतों के बारे में जानकारी साझा कर रहे हैं।

भारत के 15 प्रसिद्ध हिन्दू संत (15 Famous Hindu Saints)
भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लमान आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम था। उसके बाद महमूद ग़ज़नवी आया और भारत को 17 बार लूटा। ये दोनों भारत पर स्थायी प्रभाव नहीं दाल पाए। लेकिन मुहम्मद गौरी ने भारत में स्थायी मुस्लिम शासन की स्थापना की। भारत के हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया। इसके साथ ही भारत के हिन्दू विशेषकर निम् जातीय लोग जो हिन्दू धर्म में स्वीकार्य नहीं थे तेजी से इस्लाम की और आकर्षित हुए।
ऐसे में हिन्दू धर्म और संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ महान संतों ने भारत की धरती पर जन्म लिया और हिन्दू धर्म को बचाने के लिए आगे आये। हम यहाँ 15 प्रमुख हिन्दू संतों के बारे में बता रहे हैं। नीचे विस्तार से उनके बारे में जाने।
संत का नाम | समय |
रामानुज (Ramanuja) | 1060-1118 |
निम्बार्क (Nimbarka) | 7th and 11th शताब्दी (समय के संबंध में विवाद) |
माधवाचार्य (Madhavacharya) | 1238 ईस्वी- 1317 ईस्वी |
वल्लभाचार्य (Vallabhacharya) | 1479-1531 |
रामानंद (Ramananda) | 14th-century |
नामदेव (Namadeva) | 1270-1350 |
चैतन्य (Chaitanya) | 1485-1534 |
मीराबाई (Mirabai) | 1498-1546 |
तुलसीदास (Tulsidas) | 1532-1623 ईस्वी |
शंकरदेव (Shankar Dev) | 1449-1568 |
नरसी (Narasi) | 1414-1488 |
कबीर (Kabir) | 1398-1494 |
दादू दयाल (Dadu Dayal) | 1544-1603 |
रविदास (Ravidas) | 1338-1518 |
मलूकदास (Malukdasa) | 1631-1739 |
रामानुज (Ramanuja) 1017-1137 ईस्वी
रामानुज वैष्णव परम्परा के संत थे जिनका जन्म लगभग 1060 ईस्वी में श्रीपेरंबुदूर (वर्तमान तमिलनाडु) नामक गाँव में हुआ था, यह चोल साम्राज्य के अंतर्गत आता था। उनके पिता का नाम असुरी केशव सोमयाजी और माता का नाम कांतिमति था। विकिपीडिया के अनुसार उनका समय (1017-1137) माना गया है। उनकी तिथि के विषय में मतभेद है कुछ के अनुसार 1017-1137 और 1060-1118 है। लेकिन ठोस प्रमाण का अभाव है। उनका जन्म चिथिरई महीने में तिरुवधिरई नक्षत्र में हुआ था।
रामानुज ने विवाह के पश्चात् घर छोड़ दिया और कांचीपुरम में यादव प्रकाश को गुरु बनाकर धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया। लेकिन उपनिषदों के अध्ययन और व्याख्या के दौरान गुरु और रामानुज में असहमति होती थी तो वे अपने गुरु को छोड़कर चले गए। रामानुज यमुनाचार्य के परपोते थे, जो उनकी पोती के माध्यम से हुए थे। रामानुज ने विवाहित जीवन को त्यागकर हिन्दू भिक्षु या संत के रूप को अपना लिया। रामानुज का मानना था कि सभी आत्माओं की एकता है और व्यक्तिगत आत्मा में ब्रह्म के साथ पहचान का एहसास करने की क्षमता है। रामानुज की मृत्यु लहभग 120 वर्ष की आयु में 1137 ईस्वी में हुई।
रामानुज ने अपने संत जीवन की शुरुआत मंदिर में पुजारी के रूप में शुरू की। वे कांचीपुरम में वरदराज पेरुमल मंदिर (विष्णु देवता को समर्पित) में पुजारी बन गए। रामानुज विष्णु के साकार रूप को मानते थे और निर्गुण परम्परा के विपरीत उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत ईश्वर और सगुण विष्णु की तपस्या करने का आह्वान किया। वैष्णव परंपरा में रामानुज को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त है। रामानुज रामानुज वेदांत के विशिष्टाद्वैत सिद्धान के मुख्य प्रस्तावक के रूप में प्रसिद्ध हैं। रामानुज ने ब्रह्म सूत्र और भगवद गीता पर संस्कृत भाष्य लिखा।
नाम | रामानुज |
जन्म | 1017 ईस्वी |
जन्मस्थान | श्रीपेरंबुदूर (वर्तमान तमिलनाडु) |
पिता | असुरी केशव सोमयाजी |
माता | कांतिमति देवी |
मृत्यु | 1137 ईस्वी |
मृत्यु का स्थान | लगभग 1137 ((आयु 119-120 की आयु में )श्रीरंगम, चोल साम्राज्य (वर्तमान तमिलनाडु, भारत) |
निम्बार्क (Nimbarka) 7th and 11th शताब्दी
संत निम्बार्क को निम्बार्काचार्य , निम्बादित्य या नियमानंद के नाम से भी जाना जाता है। उनके समय के विषय में काफी मतभेद हैं। इस्तिहासकारों ने अलग-अलग विचार प्रस्तुत किये हैं। कुछ के अनुसार वे 7वीं और 11वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य रहे होंगे। जबकि कुछ के अनुसार 13वीं शताब्दी को निम्बार्क का समय माना है। निम्बार्क के प्रारम्भिक जीवन के विषय में बहुत काम जानकारी है। उनका जन्म वैशाख महीने के तीसरे उज्ज्वल पक्ष को एक हिन्दू तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जगन्नाथ और माता का नाम सरस्वती (रुणा ऋषि और जयंती देवी) था।
निम्बार्क एक हिंदू दार्शनिक, धर्मशास्त्री और द्वैताद्वैत (द्वैत-अद्वैत) या द्वैतवादी-गैर-द्वैतवादी धर्मशास्त्र के मुख्य प्रचारक के रूप में जाना जाता है। इसके आलावा उन्हें कभी-कभी स्वभाविक भेदभेद के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने ईश्वर के दिव्य युगल राधा और कृष्ण की पूजा को प्रचलित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई और निम्बार्क संप्रदाय की स्थापना की। रामानुज को कृष्ण और राधा की भक्ति को प्रचारित करने और मंदिर स्थापित करने का श्रेय है। उन्होंने वेदान्त पारिजात सौरभ, वेदान्त कामधेनु दशश्लोकी, मंत्ररहस्यशोधशी और प्रपन्नकल्पवल्ली नामक धार्मिक ग्रंथों की रचना की।
माधवाचार्य (Madhavacharya) 1238 ईस्वी- 1317
तत्ववाद (द्वैतवाद) के प्रवर्तक माधवाचार्य का जन्म 1238 ईस्वी में दक्षिण कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक एक गाँव में हुआ था। वे भगवान विष्णु के अनुयायी थे। उन्होंने अल्पायु में ही सन्यास ग्रहण किया और वेद-वेदांगों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने प्रसिद्ध शंकर मठ के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष को अपना गुरु बनाया और धर्म तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया। माधवाचार्य को वायु का तीसरा, हनुमान का प्रथम और भीम का दूसरा अवतार माना जाता है।
माधवाचार्य एक महान हिन्दू संत और विद्वान् थे। उन्होंने परम्पराओं से हटकर अलग विचारधारा का निर्माण किया जिसे द्वैतवाद कहा जाता है ,इसके आलावा उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ लिखीं। इसके आलावा उन्होंने महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करने वाला प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय लिखा और श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका लिखी है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने ऋग्वेद केप्रथम चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। माधवाचार्य ने रामानुज की तरह विष्णु को सर्वशक्तिमान माना और उडुपी में विष्णु के अवतार कृष्ण का मंदिर बनाया। 79 वर्ष की अवस्था (सन् 1317 ईस्वी) में इस लोक से चले गए।
वल्लभाचार्य (Vallabhacharya) 1479-1531
वल्ल्भाचार्य को भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में जाना जाता है। संतानत हिन्दू परम्परा के प्रमुख भारतीय संत और दार्शनिक हैं। उन्होंने ब्रज में वैष्णववाद के कृष्ण-केंद्रित पुष्टिमार्ग थी, और शुद्ध अद्वैत (शुद्ध गैर-द्वैतवाद) का वेदांत दर्शन संप्रदाय की स्थापना की । उनका जन्म 27 अप्रैल 1479 को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मणभट्टजी था और माता का नाम इलम्मागारू था।
वल्लभाचार्य को बचपन से ही कृष्णभक्ति में रूचि पैदा हो गई। उन्हें श्रीविल्वमंगलाचार्यजी (श्रीरूद्रसंप्रदाय के जगद्गुरु) द्वारा अष्टादशाक्षर गोपालमन्त्र की दीक्षा दी गई, इसके आलावा श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा श्रीरूद्र वेदव्यास विष्णुस्वामी संप्रदाय का जगद्गुरु आचार्य तिलक साम्राज्याभिषेक किया गया। उनकी प्रतिभा और विष्णु तथा कृष्ण भक्ति की गहरी रूचि के कारण त्रिदण्ड वैष्णव सन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ द्वारा गई गई। उनके दो पुत्र हुए जिनका नाम श्री गोपीनाथ व श्रीविट्ठलनाथ था। अपने शिष्य प्राणमल खत्री की सहायता से 1576 ईस्वी में उन्होंने श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया।
वल्ल्भाचार्य ने ब्रह्म, जगत् और जीव तीन तत्वों को स्वीकार किया है और कृष्ण को ही संसार का निर्माणकर्ता तथा पालनकर्ता माना है। उन्होंने कर्षण की लीलाओं को भक्ति के माध्यम से प्रस्तुत किया और उनके हज़ारों अनुयाई थे। 1531 में वे इस संसार को छोड़कर चले गए। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है:-
1. यमुनाष्टक 2. बालबोध 3. सिद्धान्त मुक्तावली 4. पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद 5. सिद्धान्तरहस्य 6. नवरत्नस्तोत्र 7. अन्तःकरणप्रबोध 8. विवेकधैर्याश्रय 9. श्रीकृष्णाश्रय 10. चतुःश्लोकी 11. भक्तिवर्धिनी 12. जलभेद 13. पंचपद्यानि 14. संन्यासनिर्णय 15. निरोधलक्षण 16. सेवाफल आदि ग्रंथों की रचना की।
रामानंद (Ramananda)
रामानंद भक्ति आंदोलन और सनातन धर्म के महान संत थे। उन्हें स्वामी जगतगुरु श्री रामानन्दाचार्य जी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने क्षत्रिय के रूप में बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की। रमानन्द का जन्म 14वीं शतब्दी में वर्तमान प्रयागराज में एक कान्यकुब्ज ब्रह्मण्ड परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला था। धार्मिक प्रवृत्ति के रामानंद को माता-पिता ने शिक्षा के लिए राधवानंद के पास श्रीमठ में भेज दिया। उन्होंने भारतीय धर्म ग्रंथों, वेद, पुराण आदि का गहन अध्ययन किया।
रामानंद ने रामानंदी सम्प्रदाय या रामावत संप्रदाय की स्थापना की जो आज वैष्णव संन्यासी/ साधुओं का सबसे बड़ा धार्मिक सम्प्रदाय है। वे वैष्णव उपासक थे और उन्होंने प्रचार हेतु १४०० शिष्य रखे थे। स्वामी जी ने हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त कटुता को समाप्त करने के लिए अथक प्रयास किये और हिन्दू धर्म तथा समाज को एकजुट करने के लिए बहुत प्रयास किये।
नामदेव (Namadeva) 1270-1350
नामदेव महाराष्ट्र के महान संत थे। उनका जन्म 1270 ईस्वी में महाराष्ट्र के सतारा जिले के कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में हुआ था। उनका परिवार शिंपी जिसे सुचिकार (दर्जी) का कार्य करता था। उनके पिता का नाम दामाशेट शिंपी और माता का नाम गोणाई देवी था। उन्होंने महान संत विसोबा खेचर से दीक्षा ली। इन्होने राधाबाई नाम की कन्या से विवाह किया और उनके एक पुत्र का नाम नारायण था।
नामदेव ने महाराष्ट्र सहित पंजाब और उत्तर भारत में हिन्दू भक्ति और धर्म का प्रचार किया। उन्होंने मराठी और हिंदी में भजन लिखे। वैष्णव संप्रदाय और हिन्दू धर्म को जनसामान्य को भक्ति का मार्ग दिखाया। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। 80 वर्ष की अवस्था में उन्होंने 1350 ईस्वी में इस संसार को त्याग दिया।
चैतन्य (Chaitanya) 1486-1534
चैतन्य जिन्हें मुख्य रूप से चैतन्य महाप्रभु के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म 18 फरवरी 1486 ईस्वी को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ,जिसे अब मायापुर कहा जाता है। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। इनके बचपन का नाम निमाई था। ये बचपन से ही बहुत सुन्दर और गोरे थे जिसके कारण इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर अदि नामों से भी जाना जाता था।
चैतन्य का एक नाम विश्वम्भर मिश्र भी है। इन्होने वैष्णव धर्म की गौड़ीय संप्रदाय की नींव रखी। १५ वर्ष की आयु में उनका विवाह लक्ष्मीप्रिया से हुआ जिनकी मृत्यु सर्प दंश के कारण हो गई। अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए इन्होने दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया से किया।
1509 ईस्वी में इन्होने संत ईश्वरपुरी से धार्मिक दीक्षा ली और कृष्ण भक्ति को अपना जीवन समर्पित कर दिया। यह नाच-गाकर कृष्ण और राधा की भक्ति के गीत गाते तथा कीर्तन करते थे। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक एकता पर बल दिया और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी जोर दिया। 1534 में इनकी मृत्यु हो गई।
मीराबाई (Mirabai) 1498-1546

कृष्णभक्ति की बात हो और मीराबाई का नाम न आये ऐसा हो नहीं सकता। मीराबाई का जन्म जन्म 1498 ईस्वी में कुडकी, मारवाड़ साम्राज्य (वर्तमान राजस्थान, भारत) में, जशोदा राव रतन सिंह राठौड़ के रूप में हुआ। उनका विवाह 1516 ईस्वी में भोजराज सिंह सिसोदिया से हुआ, जो चित्तौड़गढ़ के महाराज थे। 1521 ईस्वी में इनके पति की मृत्यु हो गई।
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई को सती होने लिए कहा गया मगर वे इसके लिए तैयार नहीं हुई। कृष्ण भक्ति में लीन मीरा ने पति की मृत्यु पर भी शृंगार नहीं उतारा क्योंकि वे कृष्ण को अपना पति मानती थीं। घरवाले मीरा को परेशान करने लगे तो वे द्वारका और वृंदावन चली गईं। कृष्ण की अनन्य भक्त मीरा ने राग गोविंद, गोविंद टीका, राग सोरठा, मीरा की मल्हार, नरसी जी रो माहेरो, गर्वागीत, फुटकर पद की रचना की। कृष्ण की भक्ति को जन जन तक पहुंचने में मीराबाई का बहुत योगदान है। 1546 ईस्वी में द्वारका गुजरात सल्तनत में निधन हो गया।
तुलसीदास (Tulsidas) 1532-1623 ईस्वी
तुलसीदास (Tulsidas) मध्यकालीन भारत के एक प्रमुख संत, कवि और भक्त थे, जो भगवान राम की भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म 16वीं शताब्दी में हुआ था (अधिकांश विद्वानों के अनुसार 1532 ईस्वी में)। उनका जन्मस्थान राजापुर, उत्तर प्रदेश में माना जाता है। तुलसीदास ने हिंदी साहित्य को अमूल्य योगदान दिया और उन्हें “रामभक्ति आंदोलन” का एक प्रमुख स्तंभ माना जाता है।
तुलसीदास की सबसे प्रसिद्ध रचना “रामचरितमानस” है, जो अवधी भाषा में लिखी गई है। यह रामायण का एक भक्तिपूर्ण और काव्यात्मक संस्करण है, जिसमें भगवान राम के जीवन और उनके आदर्शों का वर्णन है। इसे “तुलसीकृत रामायण” भी कहा जाता है। इसके आलावा उन्होंने विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा, कवितावली,,गीतावली और दोहावली की रचना की। तुलसीदास ने 1623 ईस्वी में वाराणसी (काशी) में अंतिम साँस ली।
शंकरदेव (Shankar Dev) 1449-1568
शंकरदेव का जन्म 1449 ईस्वी में कामरूप (असम) के नौगाँव जिले की बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ था हालाँकि इनके जन्म तिथि के विषय में काफी मतभेद है। 32 वर्ष की आयु में इन्होने घर-बार छोड़कर धर्म तीर्थयात्रा शुरू की। 54 वर्ष की आयु में इन्होने विवाह किया, इनकी पत्नी का नाम कालिंदी था। शंकरदीव ने बहुत से धर्म ग्रन्थ और भक्तिगीत लिखे। 1568 ईस्वी में इनका देहांत हो गया।
नरसी (Narasi) 1414-1488
नरसी जिनका पूरा नाम नरसी मेहता है एक प्रसिद्ध गुजराती कवि और कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनका जन्म 1414 ईस्वी में भावनगर के समीपवर्ती “तलाजा” नामक ग्राम, गुजरात में हुआ। इनके पिता का नाम कृष्णदामोदर था जो बड़नगर में रहते थे। कहते हैं कि नरसी 8 वर्ष की आयु तक गूंगे थे, और एक कृष्ण भक्त की कृपा से वे बोलने लगे। गरीबी में जीवन जीने वाले नरसी को उनकी भाभी ने बहुत तंग किया जिससे उन्होंने घर छोड़ दिया।
नरसी ने माणिकबाई से विवाह किया जिससे उन्हें दो संतान कुँवर बाई तथा शामलदास हुई। कृष्ण की भक्ति से पहले वे शैव भक्त थे। नरसी मेहता ने कृष्ण भक्ति की बहुत सी रचनाएं की। उनकी लिखित कविताओं में ‘नरसी का भात. आज भी लोककथाओं में बहुत लोकप्रिय है। 1568 ईस्वी में उनकी मृत्यु हो गई।
कबीर (Kabir) 1398-1494

कबीर दास भक्ति की निर्गुण शाखा के भक्त और कवि थे। उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य में मुख्य रूप से पढाई जाति हैं। कबीर दास के जन्म के संबंध में बहुत मतभेद हैं। फिर भी उनकी अनुमानित जन्म तिथि 1398 ईस्वी स्वीकार की जाती है। उनका जन्म काशी में एक तलाव में कमल के पत्ते पर हुआ। सम्भवतः उसे कोई बिन ब्याही स्त्री छोड़कर चली गई। जहाँ से नीरू और नीमा नाम के जुलाहा दम्पत्ति उन्हें उठा ले आये और पालन-पोषण किया।
कबीरदास के गुरु रामानन्द थे। कबीरदास जी को 52 बार मारने की साजिश रची गई मगर वे हर बार बच गई। कबीरदास ने हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक पाखंड पर प्रहार किया और धर्म के वास्तविक स्वरुप को प्रचारित किया। उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा मगर उनके शिष्यों ने उनके प्रवचनों को लिखित रूप दिया। वे मूर्तिपूजा का विरोध करते थे और ईश्वर को निराकार रूप में मानते थे। कबीरदास ने मगहर में अंतिम साँस (1494) लिया जहाँ लोग कहते हैं कि वहां मरने वाले को नरक मिलता है, कबीर ने इसी पाखंड को तोड़ा।
दादू दयाल (Dadu Dayal) 1544-1603
दादू दयाल हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि संत थे। वे बहुत दयालु प्रवृत्ति के थे और लोगों की बहुत मदद करते थे इसीलिए इनका नाम ‘दादू दयाल’ पड़ गया। इन्होने हिंदी, गुजराती और राजस्थानी भाषा में शबद और साखी की रचना की। उन्होंने 12 वर्ष की आयु में ईश्वर की भक्ति के लिए घर त्याग दिया और 6 वर्ष तक तपस्या की। सम्राट अकबर ने दादू को अपने दरबार में प्रवचन के लिए आमंत्रित किया और लगातार 40 दिन तक अकबर ने दादू के प्रवचन सुने और उसके बाद उसने पुरे राज्य में गौ हत्या प्र प्रतिबंध लगा दिया।
1603 ईस्वी में दादू दयाल ने “सत्यराम” पवित्र शब्द बोलते हुए इस संसार से विदा ली। दादू जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। उन्होंने सामाजिक एकता पर बल दिया और ईश्वर की भक्ति से जीवन के निर्वाण का मार्ग बताया।
रविदास (Ravidas) 1338-1518

ब्राह्मणीय वर्चस्व वाले धार्मिक क्षेत्र में एक शूद्र संत ने ऐसा उदाहरण पेश किया जिसे आज तक कोई प्रस्तुत नहीं कर पाया। पेशे से मोची का काम करने वाले रविदास/रैदास का जन्म बाराणसी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था। जैसा उनके दोहों में प्रचलित है। उनके माता-पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी थे। वे मीराबाई के गुरु और कबीर के समवर्ती थे। उन्होंने हिन्दू धर्मं में प्रचलित ऊंच-नीच और भेदभाव तथा पाखंड का खुलकर विरोध किया। उन्होंने कहा ”मन चंगा तो कठौती में गंगा” यानी अगर इंसान का मन सच्चा है तो उसे गंगा स्नान की जरुरत नहीं।
उन्होंने स्पष्ट सन्देश दिया कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए शुद्ध मन, दयालुता, सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार के गुण होना आवश्यक है। रैदास के 40 पदों को गुरुवाणी में स्थान दिया गया है। 1518 ईस्वी में उन्होंने इस दुनिया से आखरी साँस ली।
मलूकदास (Malukdasa) 1631-1739
मलूकदास का जन्म 1631 ईस्वी में इलाहबाद के कड़ा, (वर्तमान प्रयागराज) में हुआ था। उनके पिता का नाम सुन्दरदास था जो कक्कड़ खत्री थे। इनके बचपन का नाम ‘मल्लू’ था, उसके आलावा उनके तीन भाई भी थे जिनके नाम हरिश्चंद्र, शृंगार तथा रामचंद्र थे। 42 वर्ष की आयु में उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। मलूकदास ने देशभर में घुमाकर ईशवर की भक्ति का प्रचार किया और 1739 में इस संसार से विदा हो गए।
निष्कर्ष
इस प्रकार भारत की महान संत परम्परा में इन महान संतों ने बहुत बड़ा योदान दिया। इसके आलावा बहुत से हिन्दू संत हुए हैं जिन्होंने हिन्दू धर्म और समाज के लिए काम किया है। कबीर और रैदास जैसे निम्न जातीय संतों ने अपनी तपस्या और विचारों से भारत सहित दुनियाभर में प्रसिद्धि पाई है।
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हिन्दू संतों के विषय में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न-FAQs
प्रश्न- मीराबाई कौन थी?
उत्तर- मीराबाई एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थी जो गुजरात में हुई।
प्रश्न: निम्बार्क के दर्शन को क्या कहा जाता है?
उत्तर: निम्बार्क ने द्वैताद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया, जो भगवान कृष्ण और जीवात्मा के बीच अद्वैत और द्वैत के संयोजन को दर्शाता है।
प्रश्न: माधवाचार्य का दर्शन क्या था?
उत्तर: माधवाचार्य ने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया, जो भगवान विष्णु और जीवात्मा के बीच पूर्ण द्वैत को स्वीकार करता है।
प्रश्न: वल्लभाचार्य का दर्शन क्या था?
उत्तर: वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया, जो भगवान कृष्ण और जीवात्मा के बीच शुद्ध अद्वैत को दर्शाता है।
प्रश्न: रामानंद के शिष्य कौन थे?
उत्तर: रामानंद के प्रमुख शिष्यों में कबीर, रविदास, और धन्ना शामिल थे।
प्रश्न: नामदेव की शिक्षाएं क्या थीं?
उत्तर: नामदेव ने भक्ति और समर्पण के माध्यम से भगवान विट्ठल (विष्णु) की उपासना पर जोर दिया।
प्रश्न: चैतन्य महाप्रभु का मुख्य संदेश क्या था?
उत्तर: चैतन्य महाप्रभु ने भगवान कृष्ण की भक्ति और कीर्तन के माध्यम से आध्यात्मिक जागृति पर जोर दिया।
प्रश्न: मीराबाई किसकी भक्त थीं?
उत्तर: मीराबाई भगवान कृष्ण की परम भक्त थीं और उन्होंने कृष्ण भक्ति में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
प्रश्न: तुलसीदास की प्रमुख रचना कौन सी है?
उत्तर: तुलसीदास की प्रमुख रचना “रामचरितमानस” है, जो भगवान राम की कथा का वर्णन करती है।
प्रश्न: शंकरदेव का योगदान क्या था?
उत्तर: शंकरदेव ने असम में भक्ति आंदोलन को प्रचारित किया और भगवान कृष्ण की भक्ति पर जोर दिया।
प्रश्न: नरसी किसके भक्त थे?
उत्तर: नरसी भगवान विष्णु के भक्त थे और उन्होंने भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक जागृति पर जोर दिया।
प्रश्न: कबीर के दोहे किस भाषा में लिखे गए हैं?
उत्तर: कबीर के दोहे अवधी और ब्रज भाषा में लिखे गए हैं।
प्रश्न: दादू दयाल का मुख्य संदेश क्या था?
उत्तर: दादू दयाल ने एकेश्वरवाद और सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया।
प्रश्न: रविदास की शिक्षाएं क्या थीं?
उत्तर: रविदास ने सामाजिक समानता और आत्मा की शुद्धि भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति पर जोर दिया।
प्रश्न: मलूकदास किसके भक्त थे?
उत्तर: मलूकदास भगवान राम के भक्त थे और उन्होंने भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक जागृति पर जोर दिया।
प्रश्न: रामानुज ने किस मठ की स्थापना की?
उत्तर: रामानुज ने श्रीरंगम में श्रीवैष्णव मठ की स्थापना की।
प्रश्न: निम्बार्क के अनुयायी क्या कहलाते हैं?
उत्तर: निम्बार्क के अनुयायी निम्बार्क संप्रदाय के नाम से जाने जाते हैं।
प्रश्न: माधवाचार्य ने किस मठ की स्थापना की?
उत्तर: माधवाचार्य ने उडुपी में कृष्ण मठ की स्थापना की।
प्रश्न: वल्लभाचार्य के अनुयायी क्या कहलाते हैं?
उत्तर: वल्लभाचार्य के अनुयायी पुष्टिमार्ग संप्रदाय के नाम से जाने जाते हैं।
प्रश्न: रामानंद ने किस भाषा में अपने उपदेश दिए?
उत्तर: रामानंद ने हिंदी भाषा में अपने उपदेश दिए, जिससे सामान्य जनता उनकी शिक्षाओं को आसानी से समझ सके।
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