Histrory of Akbar-मध्यकालीन भारतीय इतिहास में मुग़ल शासन और अकबर का एक विशेष महत्व है। अकबर के शासन को भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता और आर्थिक समृद्धि के तौर पर जाना जाता है। उनका शासनकाल सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक सद्भाव का स्वर्णिम युग था। इस लेख के माध्यम से हम सम्राट अकबर के जीवन, उपलब्धियों और विरासत के बारे में जानेंगे, जिसमें उनका प्रारंभिक जीवन, नीतियाँ, युद्ध, परिवार और उनके शासनकाल से जुड़ी दिलचस्प कहानियाँ शामिल हैं। इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें ताकि आपको अकबर के विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो।

Early Life of Akbar: अकबर का प्रारंभिक जीवन
अकबर का जन्म उसके पिता हुमायूँ के लिए एक गौरव का पल था मगर उस समय हुमायूँ की स्थिति अत्यंत दयनीय थी और मुग़ल शासन पर शेरशाह सूरी का अधिकार था और वह एक निर्वासित मुग़ल सम्राट के रूप में हिन्दू शासक के यहाँ शरण लिए हुए था। अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) के अमरकोट किले में हुआ था। उनका पूरा नाम अबुल-फतह जलाल-उद-दीन मुहम्मद अकबर था।
वे दूसरे मुगल सम्राट हुमायूँ और एक फारसी राजकुमारी हमीदा बानो बेगम के पुत्र थे। अअकबर का जन्म अमरकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था, जहाँ हुमायूँ को अमरकोट के राजा राणा प्रसाद ने शरण दी थी। इस दौरान, अकबर ने अपना बचपन फारस में बिताया, जहाँ उन्हें एक विविध शिक्षा मिली जिसने उनके विश्वदृष्टि को आकार दिया।
नाम | अकबर |
वास्तविक नाम | अबुल-फतह जलाल-उद-दीन मुहम्मद अकबर |
जन्म | 15 अक्टूबर, 1542 |
जन्मस्थान | सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) के अमरकोट किले में |
पिता | हुमायूँ |
माता | हमीदा बानो बेगम |
वंश | मुग़ल वंश |
पत्नियां | जोधाबाई, रुकैया सुल्तान बेगम, बीबी मरियम और कई अन्य |
संतान | जहांगीर, |
सिंहासनारोहण | 14 फरवरी, 1556, कलानौर, पंजाब |
शासनावधि | 14 फरवरी, 1556– 27 अक्टूबर 1605 (कुल 49 वर्ष)। |
भाई-बहन | मिर्जा मुहम्मद हकीम, बख्शी बानो बेगम और फख्र-उन-निसा बेगम ( सभी सौतेले भाई-बहन ) |
पूर्ववर्ती | हुमायूँ |
उत्तरवर्ती | जहांगीर, शहजादा मुराद, शहज़ादा दानियाल सहित कई ने पुत्र-पुत्रियां |
मृत्यु | 27 अक्टूबर 1605 |
मृत्यु का कारण | पेचिस |
प्रारंभिक जीवन की मुख्य घटनाएँ:
मुगल साम्राज्य की स्थिति: अकबर के जन्म के समय उनके पिता हुमायूँ शेर शाह सूरी से युद्ध में पराजित हो चुके थे, जिसके कारण उसे भारत छोड़कर भागना पड़ा और फारस (ईरान) भाग गए थे। जहाँ उन्हें ईरानी शासक शाह तहमास्प ने शरण दी।
हुमायूँ का निर्वासन: हुमायूँ को शेरशाह सूरी से पराजित होने के बाद भारत से निर्वासित होना पड़ा और उसने ईरान में जाकर शरण ली। हुमायूँ ने ईरान के शासक शाह तहमास्प से शेरशाह के विरुद्ध सहायता मांगी और उसकी मदद से भारत वापसी तथा मुग़ल सिंहासन पुनः प्राप्त करने की योजना बनाई।
अकबर का जन्म: अकबर का जन्म 15 अक्टूबर 1542 को अमरकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। उस समय हुमायूँ निर्वासन में था और अमरकोट के राजा राणा प्रसाद ने उसे शरण दी थी। अकबर का जन्म हुमायूँ और उसकी पत्नी हमीदा बानो बेगम के संबंध से हुआ था।
अकबर का नामकरण: अकबर का नाम जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर रखा गया। “अकबर” का अर्थ है “महान”।
हुमायूँ की वापसी: अकबर के जन्म के बाद, हुमायूँ ने ईरानी सहायता से भारत वापस लौटने की योजना बनाई। 1555 में हुमायूँ ने मुग़ल सिंहासन पुनः प्राप्त किया, क्योंकि तब तक शेरशाह सूरी की मृत्यु हो चुकी थी और उसके उत्तराधिकारी सिकंदर सूरी को हराकर दिल्ली की गद्दी पर कब्जा कर लिया।
हुमायूँ की मृत्यु: 1560 तक अकबर ने धीरे-धीरे शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली और बैरम खान को हटा दिया।
अकबर के पिता और माता का नाम
अकबर के पिता का नाम हुमायूँ था, जो अपने पिता बाबर की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य के दूसरे शासक बने। अकबर की माता का नाम हमीदा बानो बेगम था, जो एक फारसी मूल की राजकुमारी थीं। अकबर का जन्म 15 अक्टूबर 1542 को हुआ था और वह मुग़ल साम्राज्य के तीसरे और सबसे प्रसिद्ध शासक बने। भारत में अकबर सबसे महान सम्राटों में से एक हैं।
हमीदा बानो बेगम तीसरे मुगल सम्राट अकबर की माता और मुगल सम्राट हुमायूँ की पत्नी थीं। उन्हें मुगल साम्राज्य के इतिहास में और अकबर के प्राम्भिक शासन काल की एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली महिला के रूप में याद किया जाता है। हमीदा बानो बेगम ने न केवल हुमायूँ के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि अकबर के शासनकाल में भी उनका प्रभाव था।
हमीदा बानो बेगम का जीवन और पृष्ठभूमि:
जन्म और परिवार: हमीदा बानो बेगम का जन्म 1527 में हुआ था। वह एक फारसी शिया परिवार से संबंधित थीं और उनके पिता का नाम शेख अली अकबर जामी था। उनका परिवार ईरान से भारत आकर बस गया था।
हुमायूँ से विवाह: हमीदा बानो बेगम और हुमायूँ का विवाह 1541 में हुआ था। यह विवाह उस समय हुआ जब हुमायूँ भारत से निर्वासित था और ईरान में शरण लिए हुआ था। हुमायूँ ने हमीदा बानो बेगम से विवाह उनकी शिक्षा और बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर किया था। इसका प्रभाव हमें अकबर के शासनकाल में देखने को मिला।
अकबर का जन्म: हमीदा बानो बेगम ने 15 अक्टूबर 1542 को अकबर को जन्म दिया। अकबर का जन्म अमरकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था, जहाँ भारत से निर्वासित हुमायूँ को शरण मिली थी।
अकबर ने सिंहासन कब संभाला?
अकबर ने मात्र 13 वर्ष या साढ़े तेरह वर्ष की आयु में 14 फरवरी, 1556 को अपने पिता हुमायूँ की अचानक मृत्यु के बाद सिंहासन संभाला। उनका राज्याभिषेक कलानौर, पंजाब में उनके संरक्षक बैरम खान के मार्गदर्शन में हुआ। उनके सिंहासन पर बैठने के समय मुगल साम्राज्य कमजोर और बिखरा हुआ था और कई आंतरिक और बाहरी दुश्मन चुनौती दे रहे थे। अकबर का पूरा नाम जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर था और उसने 1556 से 1605 तक शासन किया। उसके शासनकाल को भारत के स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता है।
अकबर की प्रारंभिक कठिनाइयाँ
अकबर को अपने शासनकाल के शुरुआती वर्षों में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा:
क्षेत्रीय अस्थिरता: हुमायूँ के समय में मुगल साम्राज्य एक छोटे से क्षेत्र तक सीमित हो गया था, और पड़ोसी राज्य लगातार खतरा पैदा कर रहे थे। ऐसे में अकबर के सामने सबसे पहली चुनौती अपने दुश्मनों से निपटना था।
आंतरिक विद्रोह: नवाब और सरदार अक्सर युवा सम्राट के खिलाफ विद्रोह करते थे। ऐसे में अकबर सबसे पहले आंतरिक दुश्मनों की पहचान की चुनौती से जूझ रहा था।
वित्तीय संकट: वर्षों के संघर्ष के कारण साम्राज्य का खजाना खाली हो गया था। मुग़ल साम्राज्य अपने सबसे बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा था।
सैन्य खतरे: अकबर के सामने सबसे बड़ी चुनौती अफगानो के हिन्दू सिपेहसलार हेमू था, एक हिंदू सैन्य शासक जिसने दिल्ली के सिंहासन पर दावा किया था। क्योंकि यह शेरशाह सूरी के कब्जे में रहा था।
बैरम खां और अकबर
बैरम खां और अकबर के बीच का संबंध मुगल इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। बैरम खां, अकबर का संरक्षक और मुगल साम्राज्य का प्रमुख सेनापति था। बैरम खां ने अकबर के प्रारम्भिक शासन को स्थिर करने और विस्तार देने में महत्पूर्ण भूमिका निभाई थी। बैरम खां हुमायूँ के समय में उसका सबसे विश्वासपात्र सेनापति था। पानीपत के द्वितीय युद्ध 1556 में, बैरम खां ने अकबर की ओर से मुग़ल सेना का नेतृत्व किया और अफगान सेनापति हेमू को पराजित कर मुगल साम्राज्य को सुरक्षित कर अफगान समस्या को हमेशा के लिए समाप्त किया।
अकबर का संरक्षक– अकबर के बचपन में, बैरम खां उसका संरक्षक (अटालिक) बना। उसने अकबर की शिक्षा और प्रशासनिक तथा सैन्य प्रशिक्षण की जिम्मेदारी संभाली। बैरम खां ने 1556 से 1560 तक अकबर के नाम पर शासन किया, क्योंकि अकबर उस समय नाबालिग था। लेकिन बैरम खां का नट अत्यंत दुखद रहा।
दरबार में बैरम खां की बढ़ती शक्ति ने कई दुश्मन पैदा कर दिए और अकबर के कान भरने शुरू कर दिए। अकबर ने अपने हाथ में शासन की बागडोर लेने के बाद 1560 में बैरम खां को बर्खास्त कर दिया। बैरम खां को हज यात्रा पर भेज दिया गया मगर रास्ते में ही उसकी हत्या कर दी गई।
बैरम खां की मृत्यु के बाद अकबर ने उसकी पत्नी को अपने हरम में रख लिया और उसके पुत्र अब्दुल रहीम खान-ए-खाना को अपना दत्तक पुत्र बना लिया, जो आगे चलकर अकबर के दरबार में एक प्रमुख व्यक्ति बने और उन्होंने मुगल साम्राज्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अकबर के प्रारम्भिक शासन को ‘पेटीकोट’ शासन क्यों कहते हैं?
अकबर जिस समय मुग़ल शासन के सिंहासन पर बैठा उस समय वह एक बालक था और उसकी आयु 13 वर्ष की थी। उसका प्रारंभिक शासनकाल (1556-1560 ईस्वी) को कई इतिहासकारों ने “पेटीकोट शासन” की संज्ञा दी है, क्योंकि इस दौरान अकबर के संरक्षक और उसकी माँ हमीदा बानो बेगम तथा उसके दत्तक पिता बैरम खान ने उसके शासन की बागडोर संभाली थी। यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि अकबर उस समय बहुत छोटा था और उसकी माँ तथा संरक्षकों का उसके शासन पर महत्वपूर्ण प्रभाव था।
यह अवधि अकबर के शासनकाल का प्रारंभिक चरण था, जब वह अभी नाबालिग था और उसके संरक्षकों ने उसके नाम पर शासन किया। इसके आलावा उसका समय महिलाओं के संरक्षण में ही बितता था।
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पेटीकोट शासन की पृष्ठभूमि
अकबर ने 14 फरवरी 1556 ईस्वी को केवल 13 वर्ष की आयु में अपने पिता हुमायूँ की मृत्यु के मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली। उस समय वह नाबालिग था और शासन चलाने के लिए अनुभवहीन था। इसके आलावा उसके सामने बहुत सी चुनौतियाँ थीं जिनसे निपटने में वह उस समय असमर्थ था। ऐसी स्थिति में अकबर के संरक्षक बैरम खान ने उसके शासन की बागडोर संभाली। बैरम खान एक अनुभवी सेनापति और राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने अकबर के पिता हुमायूँ के शासनकाल में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अकबर की माँ हमीदा बानो बेगम भी उसके शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। उनका अकबर के निर्णयों पर प्रभाव था।
पेटीकोट शासन क्यों कहा जाता है?
- महिलाओं का प्रभाव: अकबर के शासन के प्रारम्भिक दौर में उसकी माँ हमीदा बानो बेगम और अन्य महिलाओं का शासन पर प्रभाव था। “पेटीकोट” शब्द का प्रयोग महिलाओं के प्रभाव को दर्शाने के लिए किया गया है। और यह सत्य है।
- संरक्षकों का नियंत्रण: अकबर के संरक्षक बैरम खान ने उसके नाम पर शासन किया। हालांकि, बैरम खान के निर्णयों पर सर्वाधिक प्रभाव अकबर की माँ और अन्य दरबारियों का भी प्रभाव था।
- अकबर की नाबालिग तथा कमजोर स्थिति: अकबर के नाबालिग होने के कारण, उसके संरक्षकों और परिवार के सदस्यों ने उसके शासन की बागडोर संभाली। इसलिए, इस अवधि को “पेटीकोट शासन” कहा जाता है।
पेटीकोट शासन का अंत:
1560 ईस्वी में, अकबर ने बैरम खान को हटा दिया और स्वयं शासन की बागडोर संभाली। इसके बाद, उसने अपने शासनकाल में कई सुधार किए और मुगल साम्राज्य को एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। इसके बाद का इतिहास अकबर की विजयों, साम्राज्य विस्तार और उसके सुधारों का इतिहास है।
अकबर की हिंदू नीति
अकबर ने जैसे ही सत्ता अपने हाथ में ली उसे बहुत जल्द यह एहसास हो गया कि भारत में शासन बिना हिन्दुओं के समर्थन के चलना संभव नहीं है अतः उसने हुन्दुओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए बहुत से निर्णय लिए –
- जजिया कर की समाप्ति: जजिया कर भारत में बहुत समय से लिया जा रहा था और यह कर सिर्फ मुस्लिम सहसकों ने हिन्दू जनता से बसूला। अकबर ने गैर-मुस्लिमों पर लगाए जाने वाले इस भेदभावपूर्ण कर को समाप्त कर दिया। मुगल सम्राट अकबर ने 1564 ईस्वी में जज़िया कर को समाप्त कर दिया था। जज़िया कर एक इस्लामिक कर था, जो गैर-मुस्लिमों (मुख्यतः हिंदुओं) पर लगाया जाता था।
- वैवाहिक संबंध: अकबर ने वैवाहिक संबंधों के माध्यम से हिंदू राजकुमारियों से शादी की ताकि राजपूत शासकों का समर्थन और सहयोग प्राप्त किया जा सके, अकबर की सबसे प्रसिद्ध हिन्दू रानी जोधा बाई/हरका बाई (जिन्हें मरियम-उज़-ज़मानी के नाम से भी जाना जाता है) थी , इसके अलाबा उसके हरम में बहुत सी हिन्दू पत्नियां थीं।
- धार्मिक सहिषुणता : हिंदुओं को बिना किसी हस्तक्षेप के अपने धर्म का पालन करने की अनुमति दी गई। अकबर स्वयं भी हिन्दू त्योहारों में भाग लेता था। अकबर ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। उसने हिंदू त्योहारों जैसे दीपावली और होली को मनाने में भाग लिया। उसने हिंदू धर्म के प्रति गहरी रुचि दिखाई और हिंदू धर्मग्रंथों का फारसी में अनुवाद करवाया। उसने हिंदू विद्वानों और साधुओं के साथ धार्मिक चर्चाएँ कीं। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना (प्रार्थना स्थल) बनवाया, जहाँ विभिन्न धर्मों के विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था और धार्मिक विषयों पर चर्चा की जाती थी।
- प्रशासनिक सुधार: अकबर ने हिंदुओं को अपने प्रशासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया, जैसे राजा टोडर मल, जो उनके वित्त मंत्री थे। इसके आलावा राजा मानसिंह और बीरबर जैसे प्रभवशाली दरबारी भी उसके लिए महत्पूर्ण थे।
दीन-ए-इलाही:- दीन-ए-इलाही की स्थापना 1582 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर द्वारा की गई थी। यह एक धार्मिक और दार्शनिक संप्रदाय था, जिसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के बीच सद्भाव और एकता स्थापित करना था। दीन-ए-इलाही को अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदारवादी सोच का प्रतीक माना जाता है।
हिंदू मंदिरों का संरक्षण: अकबर ने हिंदू मंदिरों को संरक्षण प्रदान किया और कई मंदिरों के निर्माण और मरम्मत के लिए धन दिया। उसने हिंदू धर्म के पवित्र स्थलों की यात्रा की और उनका सम्मान किया।
अकबर की धार्मिक नीति
अकबर की धार्मिक नीति पर उसकी पत्नी जोधाबाई को बहुत प्रभाव झलकता है साथ ही अकबर ने अपना प्रारम्भिक जीवन ईरान में बिताया था और उसको धार्मिक सहिष्णुता के गन वहीं से मिले। अकबर (1556-1605 ई.) ने एक ऐसी धार्मिक नीति अपनाई जो सहिष्णुता, समन्वय और समावेशिता पर आधारित थी। उसकी यह नीति मुगल साम्राज्य की स्थिरता और विस्तार के लिए अमहत्वपूर्ण साबित हुई। अकबर की धार्मिक नीति के मुख्य पहलुओं को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:
धार्मिक सहिष्णुता– अकबर ने हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, सिख और अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखा। उसने जज़िया कर (गैर-मुस्लिमों पर लगने वाला कर) को समाप्त कर दिया, जो गैर-मुस्लिमों के लिए एक बड़ी राहत थी। इसके अलावा, उसने हिंदू तीर्थयात्रा कर को भी हटा दिया।
इबादतखाना की स्थापना– अकबर फतेहपुर सिकरी में इबादतखाने का निर्माण 1575 ईस्वी में करवाया था। इबादतखाना जिसका अर्थ है (प्रार्थना स्थल) और यह फतेहपुर सीकरी, आगरा में स्थित था और यह अकबर के धार्मिक विचारों और सहिष्णुता को दर्शाता है। अकबर ने इबादतखाने का निर्माण विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के विद्वानों के बीच धार्मिक और दार्शनिक चर्चाओं को बढ़ावा देने और समन्वय स्थापित करने के लिए किया था। यह स्थान विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव और समझ को दार्शनिक और विश्वसनीय तरीके से एक मंच के रूप में कार्य करता था।

दीन-ए-इलाही– दीन-ए-इलाही (अर्थ: “ईश्वर का धर्म”) मुगल सम्राट अकबर द्वारा 1582 ईस्वी में स्थापित एक धार्मिक और दार्शनिक संप्रदाय था। यह एक सार्वभौमिक धर्म के रूप में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के बीच सद्भाव और एकता स्थापित करना था। दीन-ए-इलाही को अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदारवादी सोच का परिचायक माना जाता है।
हालांकि, यह धर्म अकबर की मृत्यु के बाद लगभग समाप्त हो गया और इसे व्यापक लोकप्रियता नहीं मिली। इसका कारण यह था कि अकबर ने किसी को इस धर्म को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया था।
दीन-ए-इलाही के मुख्य सिद्धांत:
- एकेश्वरवाद: दीन-ए-इलाही एक ईश्वर में विश्वास करता था और मूर्ति पूजा का विरोध करता था।
- धार्मिक सहिष्णुता: यह धर्म सभी धर्मों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता का संदेश देता था।
- नैतिकता और न्याय: दीन-ए-इलाही में नैतिकता, न्याय और मानवता को महत्व दिया गया था।
- सूर्य और प्रकाश की पूजा: अकबर ने सूर्य और प्रकाश को ईश्वर का प्रतीक माना और इनकी पूजा को महत्व दिया।
- अनुष्ठान और प्रथाएँ: दीन-ए-इलाही में सरल अनुष्ठान और प्रथाएँ थीं, जैसे सूर्योदय और सूर्यास्त के समय प्रार्थना करना।
दीन-ए-इलाही का प्रसार:
- अनुयायी: दीन-ए-इलाही के अनुयायी मुख्य रूप से अकबर के दरबारी और कुछ विश्वासपात्र लोग थे। इसे जनसाधारण में व्यापक लोकप्रियता नहीं मिली।
- सदस्यता: दीन-ए-इलाही में शामिल होने के लिए अकबर की व्यक्तिगत अनुमति आवश्यक थी। इसके सदस्यों को एक विशेष प्रकार की टोपी पहननी पड़ती थी, जिस पर “अल्लाह-ओ-अकबर” लिखा होता था। हिन्दुओं में सिर्फ बीरबल ने इस धर्म को स्वीकार किया था।
दीन-ए-इलाही का पतन:
- सीमित प्रसार: दीन-ए-इलाही को जनसाधारण में व्यापक लोकप्रियता नहीं मिली। यह मुख्य रूप से अकबर के दरबार तक ही सीमित रहा।
- अकबर की मृत्यु: अकबर की मृत्यु के बाद, दीन-ए-इलाही का प्रभाव कम हो गया और यह धर्म लगभग समाप्त हो गया।
- धार्मिक विरोध: कुछ मुस्लिम विद्वानों ने दीन-ए-इलाही का विरोध किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह इस्लाम के सिद्धांतों के विपरीत है।
सामाजिक सुधार– अकबर ने सती प्रथा, बाल विवाह और जबरन विधवा विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कदम उठाए। उसने महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा दिया।
अकबर ने कितने युद्ध लड़े?
अकबर को उसके बचपन के संघर्ष और कठिनाइयों ने एक कुशल सैन्य रणनीतिकार बनाने में मदद की, परिणामस्वरूप उसके सफल सैन्य अभियानों के माध्यम से मुगल साम्राज्य का विस्तार हुआ। उनके शासनकाल के दौरान लड़े गए कुछ प्रमुख युद्ध और लड़ाइयाँ हैं:
पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556):
पानीपत का दूसरा युद्ध 5 नवंबर, 1556 को लड़ा गया जो भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण युद्धों में से एक है। इसने न केवल मुगल साम्राज्य के भविष्य को एक ठोस आकार दिया, बल्कि मध्यकालीन भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर भी गहरा प्रभाव डाला। यह युद्ध मुगल सम्राट अकबर और अफगानों के सेनापति हिंदू राजा हेमू के बीच लड़ा गया था, जो रणनीति, साहस और सत्ता के संघर्ष की एक दिलचस्प कहानी है।
पानीपत के युद्ध की पृष्ठभूमि
16वीं सदी के मध्य का भारत राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। पहले मुगल सम्राट बाबर की आकस्मिक मृत्यु के बाद, उनके बेटे हुमायूँ को साम्राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अफगान शासक शेर शाह सूरी ने हुमायूँ को हराकर सूर साम्राज्य की स्थापना की। हालांकि, शेर शाह की मृत्यु के बाद, हुमायूँ ने 1555 में दिल्ली के सिंहासन पर पुनः कब्जा कर लिया, लेकिन एक साल बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके छोटे बेटे अकबर ने केवल 13 साल की उम्र में सिंहासन संभाला, जिसमें बैरम खान उनके संरक्षक थे।
इसी बीच, सूर साम्राज्य के हिंदू सेनापति और प्रधानमंत्री हेमू एक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में उभरे थे। उन्होंने लगातार 22 युद्ध जीते थे और खुद को उत्तर भारत का शासक घोषित कर दिया था, जिसमें उन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। हेमू की बढ़ती शक्ति ने मुगल साम्राज्य के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर दिया, जिससे एक निर्णायक टकराव की स्थिति बन गई।
पानीपत का दूसरा युद्ध: प्रमुख घटनाएँ
पानीपत का दूसरा युद्ध वर्तमान हरियाणा के पानीपत शहर के निकट लड़ा गया था, जहाँ 1526 में पहला पानीपत का युद्ध बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच भी लड़ा गया था।
हेमू की प्रारम्भिक बढ़त: हेमू ने 30,000 घुड़सवार, 500 युद्ध हाथियों और एक मजबूत पैदल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच किया। उन्होंने तुगलकाबाद में मुगल सेना को पराजित किया और दिल्ली पर कब्जा कर लिया, खुद को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया।
मुगल सेना का प्रतिरोध: अकबर और बैरम खान ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए अपनी सेना को संगठित किया और पानीपत की ओर बढ़े। मुगल सेना छोटी थी, लेकिन अनुशासित और बेहतर तोपखाने से लैस थी।
पानीपत का युद्ध: 5 नवंबर, 1556 को दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुईं। हेमू ने शुरुआत में मुगल सेना को हाथियों के साथ भ्रमित कर दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आँख में लगा और वह बेहोश हो गया। उनकी सेना, नेता के गिरने से हतोत्साहित होकर पीछे हटने लगी। हेमू की सेना में भगदड़ मच गई।
हेमू की गिरफ्तारी और मृत्यु: हेमू को युद्ध बंदी के रूप में अकबर के सामने पेश किया गया। बैरम खान ने अकबर से हेमू को म्रत्युदंड देने का का आग्रह किया, जिसे अकबर ने स्वीकार कर लिया। इस घटना ने अकबर के साम्राज्य विस्तार के अधिकार को मजबूत किया और हेमू के शासन का अंत कर दिया।
पानीपत का रणनीतिक महत्व: पानीपत को “दिल्ली का प्रवेश द्वार” के रूप में जाना जाने लगा। यहाँ लड़े गए तीन युद्धों (1526, 1556, और 1761) ने भारत के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अकबर की मालवा विजय (1561 ईस्वी)
अकबर की मालवा विजय (1561 ईस्वी) मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह विजय उनके साम्राज्य विस्तार और मुग़ल शासन को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। मालवा उस समय एक समृद्ध और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र था, जो मध्य भारत में स्थित था।
पृष्ठभूमि:
1561 ईस्वी में, मालवा पर बाज बहादुर का शासन था। बाज बहादुर एक प्रतिभाशाली संगीतकार और कवि के रूप में प्रसिद्ध था, लेकिन उनकी सैन्य क्षमता कमजोर थी। अकबर ने इस अवसर का फायदा उठाने का निर्णय किया और मालवा पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनापति आदम खान को भेजा।
मालवा विजय:
आदम खान ने मालवा पर आक्रमण किया और बाज बहादुर को आसानी से पराजित कर दिया। बाज बहादुर युद्ध में पराजित होते ही भाग खड़ा हुआ। इसके बाद मालवा मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। हालांकि, आदम खान ने मालवा की जनता पर भयंकर अत्याचार किए, जिसके कारण अकबर ने उसे वापस बुला लिया और उसकी जगह पीर मुहम्मद को मालवा का नया गवर्नर नियुक्त किया।
हल्दीघाटी का युद्ध (1576)
अकबर ने अपनी हिन्दू नीति से बहुत से राजपूत शासकों को अपना मित्र बना लिया था, मगर मेवाड़ ने अकबर से किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया था। यद्यपि अकबर के हिन्दू मित्र राजपूत शासकों मेवाड़ को अकबर से समझौता करने के लिए मनाने के प्रयास किये थे। इसके बाद अकबर ने मिवाद को सैन्य अभियान द्वारा मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाने का निर्णय लिया।
हल्दीघाटी का युद्ध (1576 ईस्वी) भारतीय इतिहास का एक प्रसिद्ध युद्ध है, जो मुगल सम्राट अकबर ( हालाँकि अकबर स्वंय इस युद्ध का हिस्सा नहीं था ) और मेवाड़ के राजपूत शासक महाराणा प्रताप के बीच लड़ा गया। यह युद्ध राजस्थान के हल्दीघाटी नामक स्थान पर हुआ था, जो उदयपुर के पास स्थित है। इस युद्ध को भारतीय इतिहास में राजपूत वीरता, हिन्दू स्वाभिमान और देशप्रेम का प्रतीक माना जाता है।

युद्ध की पृष्ठभूमि:
मुगल साम्राज्य का विस्तार: अकबर ने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए राजपूत राज्यों को अपने अधीन करने की नीति अपनाई। उसने कई राजपूत राजाओं से संधि कर ली, लेकिन महाराणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसलिए अकबर के लिए यह आवश्यक था कि इस राजपूत राज्य को मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाये।
महाराणा प्रताप का संघर्ष: महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक थे और उन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बजाय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का निर्णय लिया।
युद्ध का कारण: अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने अधीन करने के लिए कई बार शांति और मित्रता के प्रस्ताव भेजे, लेकिन महाराणा प्रताप ने हर बार इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। अंततः अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने का फैसला किया और अपने सेनापति राजा मानसिंह (आमेर के राजा) और आसफ खान के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी।
युद्ध की घटनाएँ:
- युद्ध की तैयारी: महाराणा प्रताप ने मुगलों का सामना करने के लिए एक छोटी लेकिन वीर सेना तैयार की। उनके पास हाथी, घुड़सवार और पैदल सैनिक थे।
- युद्ध का स्थान: यह युद्ध हल्दीघाटी के संकरे मार्ग पर लड़ा गया, जो एक पर्वतीय क्षेत्र था। इस स्थान का नाम हल्दी के समान पीले रंग की मिट्टी के कारण पड़ा।
- युद्ध का परिणाम: युद्ध बहुत भयंकर था और दोनों पक्षों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी। महाराणा प्रताप की सेना ने मुगलों का जमकर मुकाबला किया, लेकिन अंततः मुगल सेना की संख्या और संसाधनों के आगे उन्हें पीछे हटना पड़ा। महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से बच निकले और जंगलों में चले गए। जहां उन्होंने अपने परिवार सहित अज्ञात स्थान पर समय गुजारा।
हालाँकि अकबर बहुत समय तक मेवाड़ को अपने अधिकार में रखने में असफल रहा और अनुकूल परिस्थितियां होते ही महाराणा प्रताप ने पुनः मेवाड़ पर अधिकार कर लिया।
गुजरात की विजय (1572-1573)
अकबर की गुजरात विजय (1572-1573 ईस्वी) मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस विजय न केवल मुगल साम्राज्य सीमाओं को पश्चिम में समुद्र तट तक पहुँचाया, बल्कि इसने अकबर की सैन्य और प्रशासनिक क्षमता को भी सिद्ध किया। गुजरात एक समृद्ध और व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र था, जिसे जीतने के बाद मुगल साम्राज्य की आर्थिक और रणनीतिक स्थिति मजबूत हुई।
युद्ध पृष्ठभूमि:
गुजरात का महत्व: गुजरात भारत का प्राचीन समय से ही एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण और आर्थिक रूप से समृद्ध प्रांत था, जो अपने व्यापारिक बंदरगाहों, उद्योगों और कृषि के लिए प्रसिद्ध था। यह अरब सागर के तट पर स्थित था, जिससे यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए महत्वपूर्ण था।
गुजरात में अराजकता: 1572 ईस्वी तक, गुजरात में अराजकता फैल गई थी। वहां के स्थानीय शासक आपस में लड़ रहे थे, और इसका फायदा उठाकर पुर्तगाली भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे।
अकबर की महत्वाकांक्षा: अकबर ने गुजरात को मुग़ल साम्राज्य में शामिल करने का निर्णय लिया, ताकि वह इसके आर्थिक लाभों का उपयोग कर सके और मुगल साम्राज्य को मजबूत बना सके।
गुजरात विजय (1572-1573):
अकबर का आक्रमण: अकबर ने 1572 ईस्वी में गुजरात पर भयंकर आक्रमण किया। उसने अपनी सेना के साथ अहमदाबाद की ओर कूच किया।
सूरत की विजय: अकबर ने सूरत को जीत लिया, जो गुजरात का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक अड्डा था। सूरत की विजय ने मुगलों को अरब सागर तक पहुंचा दिया।
अहमदाबाद पर अधिकार: अकबर ने अहमदाबाद को भी अपने अधिकार में ले लिया, जो गुजरात की राजधानी थी। इसके बाद गुजरात के अधिकांश हिस्से मुगल साम्राज्य के अधीन हो गए।
पुर्तगालियों से संघर्ष: गुजरात विजय के दौरान, अकबर को पुर्तगालियों से भी संघर्ष करना पड़ा, जो भारत के पश्चिमी तट पर अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे।
बंगाल का विलय (1574-1576)
अकबर की बंगाल विजय (1574-1576 ईस्वी) मुगल साम्राज्य के विस्तार और एकीकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम था। बंगाल उस समय भारत का आर्थिक रूप से सबसे समृद्ध और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र था, जिसे जीतने के बाद मुगल साम्राज्य की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति मजबूत हुई। यह विजय अकबर के शासनकाल की एक प्रमुख उपलब्धि थी।
युद्ध की पृष्ठभूमि:
बंगाल का आर्थिक और रणनीतिक महत्व: बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रांत था, जो अपनी उपजाऊ भूमि, विदेशी व्यापार और उद्योग के लिए प्रसिद्ध था। यह गंगा नदी के मुहाने पर स्थित था, जिससे यह व्यापार और संचार के लिए महत्वपूर्ण था। इसके आलावा पूर्वी भारत का एक अलग रणनीतिक महत्व था।
स्वतंत्र शासक: 16वीं शताब्दी में, बंगाल पर अफगान शासकों का नियंत्रण था। सुलेमान कर्रानी और उसके उत्तराधिकारी दाऊद खान कर्रानी ने बंगाल पर शासन किया, लेकिन वे मुगलों की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में अकबर के सामने यह एक चुनौती थी कि कैसे बंगाल को मुग़ल साम्राज्य का अंग बनाये।
अकबर की साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा: अकबर ने साम्राज्य विस्तार की महत्वकांक्षा से बंगाल को अपने साम्राज्य में शामिल करने का निर्णय लिया, ताकि वह इसके राजनितिक औ आर्थिक लाभों का उपयोग कर सके और मुगल साम्राज्य को और अधिक मजबूत बना सके।
बंगाल विजय (1574-1576):
बंगाल पर प्रथम आक्रमण (1574): अकबर ने 1574 ईस्वी में बंगाल पर प्रथम आक्रमण किया। उसने अपने सेनापति मुनीम खान को बंगाल भेजा। मुनीम खान ने पटना और हाजीपुर पर आसानी से अधिकार कर लिया।
बंगाल के शासक दाऊद खान का प्रतिरोध: दाऊद खान कर्रानी ने मुगलों का वीरता से सामना किया, लेकिन वह मुगल सेना के सामने टिक नहीं पाया। उसे पीछे हटना पड़ा।
तुकारोई का युद्ध (1575): मुगल सेना और दाऊद खान की सेना के बीच तुकारोई नामक स्थान पर एक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना विजयी रही, लेकिन दाऊद खान फिर भी बच निकला।
राजमहल की निर्णायक लड़ाई (1576): 1576 ईस्वी में, मुगल सेना ने दाऊद खान को राजमहल के पास पराजित कर दिया। दाऊद खान को गिरफ्तार कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई। इसके साथ ही बंगाल पर मुगलों का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया।
अकबर का दक्कन अभियान:
अकबर का दक्कन अभियान मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल (1556-1605 ईस्वी) के अंतिम वर्षों में शुरू हुआ और यह मुगल साम्राज्य के दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। दक्कन (दक्षिण भारत) उस समय कई स्वतंत्र राज्यों में विभाजित था, जिनमें अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बरार प्रमुख थे। अकबर ने इन राज्यों को मुग़ल साम्राज्य में शामिल करने का प्रयास किया, लेकिन यह अभियान पूरी तरह सफल नहीं हो सका।
अकबर की लिए दक्कन का महत्व
दक्कन का महत्व: दक्कन क्षेत्र अपनी समृद्धि, संस्कृति और रणनीतिक स्थिति के लिए प्रसिद्ध था। यह क्षेत्र व्यापार और कृषि के लिए महत्वपूर्ण था। अकबर के लिए ऐसे समृद्ध और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्यों को मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाना महत्वपूर्ण था।
दक्कन के राज्य: दक्कन में कई स्वतंत्र राज्य थे, जैसे अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बरार। ये राज्य शिया और सुन्नी मुस्लिम शासकों के अधीन थे।
अकबर की महत्वाकांक्षा: अकबर ने दक्कन को अपने साम्राज्य में शामिल करने का निर्णय लिया, ताकि वह भारत के एक बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर मुग़ल साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार कर सके।
दक्कन अभियान (1595-1601):
अकबर के प्रारंभिक प्रयास: अकबर ने 1591 ईस्वी में दक्कन के राज्यों को अपने अधीन करने के लिए राजनयिक प्रयास शुरू किए, लेकिन ये प्रयास सफल नहीं हुए।
अहमदनगर पर आक्रमण (1595): 1595 ईस्वी में, अकबर ने अपने सेनापति अब्दुर रहीम खान-ए-खाना को अहमदनगर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। समय अहमदनगर का शासन रानी चांद बीबी के हाथ में था और उसने मुगलों का वीरता से सामना किया, लेकिन अंततः उन्हें संधि करनी पड़ी।
बरार और खानदेश की विजय: मुगल सेना ने बरार और खानदेश पर कब्जा कर लिया। ये क्षेत्र मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गए।
असीरगढ़ की घेराबंदी (1599): मुगल सेना ने असीरगढ़ किले को घेर लिया, जो एक महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थान था। 1601 ईस्वी में, मुगलों ने इस किले पर कब्जा कर लिया।
अकबर की व्यक्तिगत भागीदारी: 1599 ईस्वी में, अकबर ने स्वयं दक्कन अभियान में भाग लिया। उसने बुरहानपुर और असीरगढ़ की ओर कूच किया।
अकबर का अंतिम युद्ध किसके साथ हुआ
अकबर का अंतिम युद्ध असीरगढ़ की घेराबंदी (1601) के दौरान हुआ, जो उनके दक्कन अभियान का हिस्सा था। यह युद्ध मुगल साम्राज्य और दक्कन के स्थानीय शासकों के बीच लड़ा गया। असीरगढ़ किला, जो वर्तमान में महाराष्ट्र में स्थित है, एक अत्यंत सुरक्षित और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण किला था। इस किले पर कब्जा करने के लिए अकबर ने अपने सेनापतियों को भेजा, और बाद में स्वयं भी इस अभियान में शामिल हुए।
मुगल सम्राट अकबर (1542-1605) ने एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिसने उसके साम्राज्य को मजबूत और व्यवस्थित बनाया। उसकी प्रशासनिक व्यवस्था न केवल कुशल थी, बल्कि लचीली और समावेशी भी थी, जिसने विविध संस्कृतियों और धर्मों को एक साथ जोड़ा। अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था के मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:
अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था
किसी भी साम्राज्य की व्यवस्था में प्रशासनिक व्यवस्था का सञ्चालन सबसे महत्वपूर्ण होता है। अकबर ने एक सुव्यवस्थित केंद्रीयकृत शासन व्यवस्था की स्थापना की ,समस्त शक्तियां सम्राट में केंद्रित थी। सम्राट सभी शक्तियों का केंद्र था मगर निरंकुश नहीं वही मंत्रियों की सलाह से शासन का सञ्चालन करता था। संछिप्त रूप में अकबर की शासन व्यवस्था यहाँ नीचे पढ़ सकते हैं-
1. केंद्रीकृत प्रशासन
अन्य मुग़ल सम्राटों की भांति अकबर ने भी एक केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिसमें सभी महत्वपूर्ण निर्णय सम्राट द्वारा लिए जाते थे। उसने अपने साम्राज्य को प्रांतों (सूबों) में विभाजित किया, जिन्हें योग्य सूबेदारों द्वारा प्रशासित किया जाता था।
2. प्रांतीय प्रशासन
- साम्राज्य को 15 प्रांतों (सूबों) में बांटा गया था, जिन्हें बाद में बढ़ाकर 20 कर दिया गया।
- प्रत्येक प्रांत का प्रमुख एक सूबेदार होता था, जो सैन्य और प्रशासनिक मामलों का प्रभारी था।
- प्रांतों को आगे सरकारों (जिलों) और परगनाओं (तहसीलों) में विभाजित किया गया था।
3. राजस्व व्यवस्था
अकबर की राजस्व व्यवस्था का पूर्वगामी शेरशाह सूरी था और अकबर ने उसकी राजस्व व्यवस्था को जारी रखते हुए राजा टोडरमल के नेतृत्व में एक कुशल राजस्व व्यवस्था की स्थापना की।
- टोडरमल की भू-राजस्व व्यवस्था: अकबर के वित्त मंत्री राजा टोडरमल ने जब्ती प्रणाली (या दहसाला प्रणाली) शुरू की, जिसमें भूमि की माप की गई और उपज के आधार पर कर निर्धारित किया गया।
- कर की दर उपज का 1/3 हिस्सा थी, जिसे नकद या फसल के रूप में लिया जा सकता था।
- भूमि को चार श्रेणियों में बांटा गया: पोलज, परौती, चचर और बंजर।
- पोलज: पोलज भूमि वह भूमि थी जो हर साल खेती के लिए उपयोग में लाई जाती थी। यह भूमि सबसे अधिक उपजाऊ होती थी। इसे लगातार खेती के लिए उपयोग किया जाता था और यह कभी खाली नहीं छोड़ी जाती थी।
- परौती: परौती भूमि वह भूमि थी जो कुछ समय के लिए खाली छोड़ दी जाती थी, ताकि उसकी उर्वरता बढ़ सके।
- चचर: चचर भूमि वह भूमि थी जो तीन या चार साल तक खाली छोड़ दी जाती थी।
- बंजर: बंजर भूमि वह भूमि थी जो पांच साल या उससे अधिक समय तक खेती के लिए उपयोग में नहीं लाई जाती थी।
4. सैन्य प्रशासन
- अकबर ने मनसबदारी प्रणाली शुरू की, जिसमें सैन्य और प्रशासनिक अधिकारियों को मनसब (पद) दिए जाते थे।
- मनसबदारों को उनके पद के अनुसार सैनिक रखने होते थे और उन्हें वेतन के बदले जागीरें दी जाती थीं।
- इस प्रणाली ने सैन्य और प्रशासनिक व्यवस्था को एकीकृत किया।
5. न्यायिक व्यवस्था
- अकबर ने एक न्यायप्रिय शासक के रूप में न्यायिक व्यवस्था को मजबूत किया।
- न्याय के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में सम्राट स्वयं न्याय करता था।
- प्रांतों और जिलों में काजी और मुंसिफ न्यायिक मामलों का निपटारा करते थे।
6. धार्मिक सहिष्णुता और सुलह-ए-कुल
- अकबर ने सुलह-ए-कुल (सभी धर्मों के साथ शांति) की नीति अपनाई।
- उसने हिंदुओं, जैनियों, ईसाइयों और पारसियों सहित विभिन्न धर्मों के लोगों को अपने दरबार में उच्च पद दिए।
- जजिया कर (गैर-मुस्लिमों पर लगने वाला कर) को समाप्त कर दिया गया।
7. केन्द्रीय मंत्रिमंडल
अकबर के पास एक कुशल मंत्रिमंडल था, जिसमें विभिन्न मंत्री शामिल थे:
वकील-ए-सुल्तान | प्रधानमंत्री |
दीवान-ए-आला | वित्त मंत्री |
मीर बख्शी | सैन्य प्रमुख |
सद्र-उस-सुदूर | धार्मिक मामलों का प्रमुख |
काजी-उल-कुजात | प्रमुख न्यायाधीश |
8. सूचना और जासूसी व्यवस्था
- अकबर ने एक कुशल जासूसी नेटवर्क स्थापित किया, जो उसे साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों की जानकारी देता था।
- वाकिया-नवीस और सवानिह-नवीस जैसे अधिकारी घटनाओं और गतिविधियों का लेखा-जोखा तैयार करते थे।
9. सांस्कृतिक और आर्थिक विकास
- अकबर ने कला, साहित्य और वास्तुकला को प्रोत्साहित किया।
- उसने व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने के लिए सड़कों और सरायों का निर्माण करवाया।
10. लोक कल्याण
- अकबर ने किसानों और आम जनता के हित में कई नीतियां बनाईं।
- उसने अकाल और संकट के समय करों में छूट दी और राहत कार्य शुरू किए।
अकबर के दरबार नवरत्न
अकबर के दरबार में नवरत्न (नौ रत्न) विख्यात थे, जो अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। ये नवरत्न अकबर के शासनकाल में उसके सलाहकार, कलाकार, विद्वान और प्रशासक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। अकबर के नवरत्नों की सूची विभिन्न स्रोतों में थोड़ी भिन्न हो सकती है, लेकिन सामान्यतः निम्नलिखित नौ व्यक्तियों को अकबर के नवरत्न के रूप में जाना जाता है:
1. बीरबल (महेश दास)
- भूमिका: बीरबल अकबर के दरबार में एक प्रमुख सलाहकार और मंत्री थे। वे अपनी चतुर बुद्धिमत्ता और हास्य-व्यंग्य तथा हाजिर-जवाबी के लिए प्रसिद्ध थे।
- प्रसिद्धि: बीरबल और अकबर के बीच हुए चतुराई भरे संवाद और किस्से आज भी लोकप्रिय हैं। जिनका जिक्र हम आगे करेंगे।
2. तानसेन (मियां तानसेन)
- भूमिका: तानसेन एक महान संगीतकार और गायक थे। उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत का महानतम व्यक्ति माना जाता है।
- प्रसिद्धि: तानसेन ने ध्रुपद और ख्याल जैसी संगीत शैलियों को लोकप्रिय बनाया। उन्हें “संगीत सम्राट” की उपाधि दी गई।
3. अबुल फजल
- भूमिका: अबुल फजल अकबर के दरबार में एक प्रमुख इतिहासकार और लेखक थे। वे अकबर के विश्वासपात्र सलाहकार थे।
- प्रसिद्धि: उन्होंने “अकबरनामा” और “आइन-ए-अकबरी” जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना की, जो मुगल साम्राज्य के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
4. टोडरमल
- भूमिका: टोडरमल अकबर के दरबार में एक प्रमुख वित्त मंत्री और प्रशासक थे। उन्होंने मुगल साम्राज्य की राजस्व प्रणाली को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- प्रसिद्धि: टोडरमल ने “टोडरमल बंदोबस्त” नामक भू-राजस्व प्रणाली की शुरुआत की, जो न्यायपूर्ण और व्यवस्थित थी।
5. राजा मान सिंह
- भूमिका: राजा मान सिंह अकबर के दरबार में एक प्रमुख सेनापति और राजनीतिज्ञ थे। वे आमेर (जयपुर) के राजपूत शासक थे।
- प्रसिद्धि: उन्होंने अकबर की सेना का नेतृत्व करते हुए कई युद्धों में विजय प्राप्त की और मुगल साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
6. अब्दुर रहीम खान-ए-खाना
- भूमिका: अब्दुर रहीम खान-ए-खाना एक प्रसिद्ध कवि, सेनापति और अकबर के दरबार में एक प्रमुख व्यक्ति थे। वे बैरम खान के पुत्र थे।
- प्रसिद्धि: उन्होंने हिंदी और फारसी में कविताएँ लिखीं और उन्हें “रहीम” के नाम से जाना जाता है। उनके दोहे आज भी प्रसिद्ध हैं।
7. फकीर अजियो दीन
- भूमिका: फकीर अजियो दीन अकबर के दरबार में एक प्रमुख धार्मिक सलाहकार थे। वे धार्मिक और दार्शनिक मामलों में अकबर की सहायता करते थे।
- प्रसिद्धि: उन्होंने अकबर की धार्मिक नीतियों और सहिष्णुता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
8. मुल्ला दो प्याजा
- भूमिका: मुल्ला दो प्याजा अकबर के दरबार में एक प्रसिद्ध विदूषक और हास्य कलाकार थे। वे अपनी चतुराई और हास्य-व्यंग्य के लिए जाने जाते थे। वे अपने खाने में दो प्याज रोज खाते थे इसीलिए उन्हें मुल्ला दो प्याजा कहा जाने लगा।
- प्रसिद्धि: उनके चतुराई भरे किस्से और वाक्यांश आज भी लोकप्रिय हैं।
9. राजा भगवान दास
- भूमिका: राजा भगवान दास अकबर के दरबार में एक प्रमुख हिन्दू सेनापति और राजनीतिज्ञ थे। वे आमेर के राजपूत शासक थे और राजा मान सिंह के पिता थे।
- प्रसिद्धि: उन्होंने मुगल साम्राज्य के विस्तार और स्थिरता में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अकबर की पत्नियाँ: अकबर की कितनी बेगम थीं?
अकबर की पत्नियों की संख्या के बारे में एकमत नहीं हैं, लेकिन यह माना जाता है कि उसकी 100-300 से अधिक पत्नियाँ थीं। इनमें से कुछ प्रमुख पत्नियाँ (बेगम) थीं, जो उसके जीवन और शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। अकबर की पत्नियाँ विभिन्न धर्मों, जातियों और क्षेत्रों से थीं, जो उसकी धार्मिक सहिष्णुता और राजनीतिक एकीकरण की नीति को दर्शाती हैं। उसकी कुछ पत्नियों के बारे में तो अकबर को भी पता नहीं था।
रुकैया सुल्तान बेगम: रुकैया सुल्तान बेगम अकबर की प्रथम और प्रमुख पत्नी थीं। वह अकबर के चचेरे भाई और उसके संरक्षक बैरम खान की बेटी थीं। अकबर ने उनसे 1551 ईस्वी में विवाह किया था, जब वह केवल 9 वर्ष का था। रुकैया बेगम ने अकबर के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके कोई संतान नहीं थी।
सलीमा सुल्तान बेगम: सलीमा सुल्तान बेगम अकबर की दूसरी प्रमुख पत्नी थीं। वह मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की पोती थीं। उन्होंने अकबर के चचेरे भाई और उसके प्रतिद्वंद्वी मिर्जा हकीम से पहला विवाह किया था, लेकिन बाद में अकबर से विवाह किया। सलीमा बेगम ने अकबर के दरबार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मरियम-उज़-ज़मानी/जोधाबाई (हरका बाई):
जोधाबाई (जिसे मरियम-उज़-ज़मानी के नाम से भी जाना जाता है) मुगल सम्राट अकबर की प्रमुख पत्नियों में से एक थीं। वह एक राजपूत राजकुमारी थीं और अकबर के साथ उनका विवाह मुगल-राजपूत संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। जोधाबाई का नाम भारतीय इतिहास और लोककथाओं में विशेष रूप से प्रसिद्ध है, हालांकि ऐतिहासिक स्रोतों में उनके नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। उन्हें आमतौर पर अकबर की राजपूत पत्नी के रूप में जाना जाता है।
जोधाबाई का जीवन और पृष्ठभूमि: जोधाबाई का जन्म आमेर (वर्तमान जयपुर, राजस्थान) के राजपूत शासक राजा भारमल के परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम हरका बाई या हीर कुंवर था। जोधाबाई का विवाह 1562 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर से हुआ था। यह विवाह मुगलों और राजपूतों के बीच एक राजनीतिक गठजोड़ का प्रतीक था। अकबर ने जोधाबाई को “मरियम-उज़-ज़मानी” (युग की मरियम) की उपाधि दी, जो उनके लिए सम्मान और प्रेम का प्रतीक था। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता में जोधाभाई की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
जोधाबाई अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर (शहजादा सलीम) की माँ थीं। जहांगीर ने बाद में मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली।
बीबी दौलत शाद: बीबी दौलत शाद अकबर की एक अन्य प्रमुख पत्नी थीं। वह अकबर के चचेरे भाई की बेटी थीं। उन्होंने अकबर के दरबार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बीबी मरियम: बीबी मरियम अकबर की एक अन्य पत्नी थीं। वह एक राजपूत राजकुमारी थीं।
बीबी खैर-उन-निसा: मुगल सम्राट अकबर की पत्नियों में से एक थीं। वह फारस की रहने वाली थी और उनका नाम इतिहास में अकबर की अन्य पत्नियों की तुलना में कम प्रसिद्ध है, लेकिन वह अकबर के दरबार और उसके जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
अकबर की संतान
मुगल सम्राट अकबर की कई संतान थी, लेकिन उनमें से केवल कुछ ही ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। अकबर के बच्चों में उसके पुत्र और पुत्रियाँ शामिल थीं, लेकिन उनमें से अधिकांश की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। अकबर के सबसे प्रसिद्ध पुत्र जहांगीर (शहजादा सलीम) थे, जो उसके उत्तराधिकारी बने। यद्यपि सलीम ने राजकुमार रहते अपने पिता के विरुद्ध कई बार विद्रोह किया। अकबर की अन्य संतानों के बारे में ऐतिहासिक स्रोतों में कम जानकारी उपलब्ध है।
अकबर की प्रमुख संतान:
जहांगीर (शहजादा सलीम): | जन्म: 31 अगस्त 1569 ईस्वी। माता: मरियम-उज़-ज़मानी (जोधाबाई)। महत्व: जहांगीर अकबर का सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध पुत्र था। वह अकबर के बाद मुगल साम्राज्य का चौथा मुग़ल सम्राट बना। शासनकाल: जहांगीर ने 1605 से 1627 ईस्वी तक शासन किया। उसके शासनकाल को कला और संस्कृति के विकास और उत्थान के लिए जाना जाता है। |
शहजादा मुराद | जन्म: 1570 ईस्वी। माता: सलीमा सुल्तान बेगम। महत्व: शहजादा मुराद अकबर का दूसरा पुत्र था। उसे गुजरात का गवर्नर नियुक्त किया गया था। मृत्यु: 1599 ईस्वी में शराब की लत के कारण उसकी मृत्यु हो गई। |
शहजादा दानियाल | जन्म: 1572 ईस्वी। माता: बीबी दौलत शाद। महत्व: शहजादा दानियाल अकबर का तीसरा पुत्र था। उसे दक्कन का गवर्नर नियुक्त किया गया था। मृत्यु: 1604 ईस्वी में शराब की लत के कारण उसकी मृत्यु हो गई। |
शहजादी खानुम सुल्तान बेगम | माता: रुकैया सुल्तान बेगम। महत्व: शहजादी खानुम सुल्तान बेगम अकबर की बेटी थीं। उनका विवाह मिर्जा अज़ीज कोका से हुआ था। |
शहजादी शकर-उन-निसा बेगम | माता: सलीमा सुल्तान बेगम। महत्व: शहजादी शकर-उन-निसा बेगम अकबर की बेटी थीं। उनका विवाह शहजादा मुराद से हुआ था। |
शहजादी अराम बानो बेगम | माता: बीबी दौलत शाद। महत्व: शहजादी अराम बानो बेगम अकबर की बेटी थीं। उनका विवाह शहजादा दानियाल से हुआ था। |
अकबर की मृत्यु
मुगल सम्राट अकबर की मृत्यु 27 अक्टूबर 1605 ईस्वी को हुई थी। उनकी मृत्यु के समय उनकी आयु 63 वर्ष थी। अकबर की मृत्यु का कारण पेचिश (डिसेंटरी) बताया जाता है, जो उस समय एक गंभीर बीमारी थी। अकबर की मृत्यु ने मुगल साम्राज्य के एक महान युग का अंत कर दिया, क्योंकि वह एक प्रगतिशील और सहिष्णु शासक थे, जिन्होंने भारत में सांस्कृतिक, धार्मिक और प्रशासनिक सुधारों को बढ़ावा दिया।
अकबर की मृत्यु से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य:
अंतिम संस्कार: अकबर को सिकंदरा, आगरा में दफनाया गया। उनका मकबरा एक भव्य संरचना है, जो उनकी महानता और विरासत को दर्शाती है।
अंतिम दिन: अकबर ने अपने अंतिम दिनों में फतेहपुर सीकरी में बिताए। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी, शहजादा सलीम (जहांगीर), को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
बीमारी: अकबर को पेचिश (डिसेंटरी) हो गई थी, जो उस समय एक लाइलाज बीमारी थी। इस बीमारी के कारण उनकी तबीयत बिगड़ती गई।
मृत्यु: 27 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, उनके पुत्र जहांगीर ने मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली।
अकबर को किसने मारा?
ऐसा कोई सबूत नहीं है कि अकबर की हत्या की गई थी। उनकी मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई, और उनकी मृत्यु पर पूरे साम्राज्य में शोक छा गया।
अकबर का मकबरा कहाँ है?
अकबर का मकबरा मुगल सम्राट अकबर की अंतिम resting place है और यह भारत के ऐतिहासिक और स्थापत्य महत्व के सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में से एक है। यह मकबरा सिकंदरा, आगरा में स्थित है, जो आगरा शहर से लगभग 8 किलोमीटर दूर है। अकबर ने अपने जीवनकाल में ही इस मकबरे का निर्माण शुरू करवाया था, लेकिन इसका निर्माण कार्य उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र जहांगीर ने पूरा करवाया। यह मकबरा मुगल वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है और इसे अकबर की महानता और विरासत का प्रतीक माना जाता है।

अकबर के मकबरे की मुख्य विशेषताएँ:
- स्थापत्य शैली:
- अकबर का मकबरा मुगल वास्तुकला और हिंदू, इस्लामिक, जैन और ईसाई शैलियों का एक अनूठा मिश्रण है। यह अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदारवादी सोच को दर्शाता है।
- मकबरे का डिज़ाइन एक विशाल बगीचे (चारबाग शैली) के बीच में स्थित है, जो मुगल वास्तुकला की एक प्रमुख विशेषता है।
- संरचना:
- मकबरा एक पिरामिडनुमा संरचना है, जो पाँच मंजिला है। यह लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बना है।
- मकबरे के चारों कोनों पर मीनारें बनी हुई हैं, जो इसकी सुंदरता को और बढ़ाती हैं।
- मकबरे के अंदर अकबर की कब्र स्थित है, जो एक साधारण और शांत वातावरण में बनी हुई है।
- सजावट:
- मकबरे की दीवारों पर ज्यामितीय डिज़ाइन, फूलों की नक्काशी और कुरान की आयतें उकेरी गई हैं।
- मकबरे के अंदरूनी हिस्से में हिंदू और जैन वास्तुकला के तत्व भी देखे जा सकते हैं, जो अकबर की धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाते हैं।
- बगीचा:
- मकबरा एक विशाल बगीचे (चारबाग) के बीच में स्थित है, जो मुगल वास्तुकला की एक प्रमुख विशेषता है। बगीचे में फव्वारे, पेड़-पौधे और फूलों की क्यारियाँ हैं।
अकबर के मकबरे का ऐतिहासिक महत्व:
यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल: अकबर का मकबरा यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल है, जो इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।
अकबर की विरासत: यह मकबरा अकबर की महानता और उनकी विरासत का प्रतीक है। अकबर ने अपने शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक, धार्मिक और प्रशासनिक सुधार किए थे।
मुगल वास्तुकला: यह मकबरा मुगल वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है और इसे भारतीय इतिहास और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।
किस राजपूत शासक ने अकबर की कब्र खोदकर निकाली
अकबर की कब्र को खोदकर निकालने वाला राजपूत शासक महाराजा जय सिंह II था। यह घटना 17वीं शताब्दी के अंत में हुई थी। महाराजा जय सिंह II जयपुर (आमेर) के कछवाहा राजपूत शासक थे और उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में यह कार्य किया था।
इस घटना की पृष्ठभूमि:
- औरंगजेब की नीतियाँ: औरंगजेब एक कट्टर मुस्लिम शासक था, जिसने हिंदुओं और अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति को त्याग दिया था। उसने कई हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया और हिंदुओं पर जज़िया कर लगाया।
- महाराजा जय सिंह II की भूमिका: महाराजा जय सिंह II औरंगजेब के दरबार में एक प्रमुख सामंत थे। उन्हें औरंगजेब के आदेश पर अकबर की कब्र को खोदकर निकालने का काम सौंपा गया था।
- कारण: औरंगजेब ने अकबर की कब्र को खोदने का आदेश इसलिए दिया क्योंकि वह अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदारवादी नीतियों के विरोधी था। उसने अकबर की कब्र को नष्ट करने का प्रयास किया ताकि उसकी विरासत को मिटाया जा सके।
घटना का परिणाम:
- कब्र की बर्बादी: महाराजा जय सिंह II ने अकबर की कब्र को खोदकर निकाला, लेकिन उन्होंने कब्र को पूरी तरह नष्ट नहीं किया। उन्होंने कब्र को फिर से बंद कर दिया और उसकी मरम्मत की।
- औरंगजेब का गुस्सा: औरंगजेब को जब यह पता चला कि महाराजा जय सिंह II ने अकबर की कब्र को पूरी तरह नष्ट नहीं किया है, तो वह बहुत गुस्सा हुआ। उसने महाराजा जय सिंह II को दंडित करने का प्रयास किया, लेकिन महाराजा ने अपनी चतुराई से औरंगजेब को शांत कर दिया।
निष्कर्ष
मुगल सम्राट अकबर का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। उनकी धार्मिक सहिष्णुता, प्रशासनिक सुधार और सैन्य विजय के साथ समाज सुधर के कार्यों ने एक एकीकृत और समृद्ध साम्राज्य की नींव रखी। अकबर की विरासत आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करती है, और कला, संस्कृति और शासन में उनका योगदान अतुलनीय है।
उनके जीवन और उपलब्धियों को समझकर, हम भारत के अतीत की समृद्ध विरासत को गहराई से जान सकते हैं। अकबर को भारत के महानतम सम्राट के रूप में याद किया जाता है। यद्यपि वर्तमान समय में धार्मिक कटटरवाद ने अकबर जैसे सहिष्णु शासक को भी हिन्दू घृणा का पात्र बनाने का प्रयास किया है।
अकबर से संबंधित सामान्य ज्ञान के 20 महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर (FAQ)
Q. अकबर का पूरा नाम क्या था?
Ans. अकबर का पूरा नाम जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर था।
Q. अकबर का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
Ans. अकबर का जन्म 15 अक्टूबर 1542 को अमरकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था।
Q. अकबर के पिता का नाम क्या था?
Ans. अकबर के पिता का नाम हुमायूँ था।
Q. अकबर की माता का नाम क्या था?
Ans. अकबर की माता का नाम हमीदा बानो बेगम था।
Q. अकबर ने कितने वर्ष की आयु में सिंहासन संभाला?
Ans. अकबर ने 13 वर्ष की आयु में सिंहासन संभाला (1556 ईस्वी)।
Q. अकबर का संरक्षक कौन था?
Ans. अकबर का संरक्षक बैरम खान था।
Q. अकबर के शासनकाल को किस नाम से जाना जाता है?
Ans. अकबर के शासनकाल को “अकबर-ए-आज़म” (महान अकबर) के नाम से जाना जाता है।
Q. अकबर ने किस युद्ध में हेमू को हराया था?
Ans. अकबर ने पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556) में हेमू को हराया था।
Q. अकबर की राजधानी कहाँ थी?
Ans. अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी थी, जिसे बाद में आगरा स्थानांतरित कर दिया गया।
Q. अकबर ने किस धर्म को शुरू किया था?
Ans. अकबर ने दीन-ए-इलाही नामक एक नया धर्म शुरू किया था।
Q. अकबर के नवरत्न कौन-कौन थे?
Ans. अकबर के नवरत्न थे – बीरबल, तानसेन, अबुल फजल, टोडरमल, राजा मान सिंह, अब्दुर रहीम खान-ए-खाना, फकीर अजियो दीन, मुल्ला दो प्याजा, और राजा भगवान दास।
Q. अकबर ने किस प्रशासनिक सुधार को लागू किया था?
Ans. अकबर ने मनसबदारी प्रणाली और टोडरमल बंदोबस्त (भू-राजस्व प्रणाली) को लागू किया था।
Q. अकबर की प्रसिद्ध पत्नी का नाम क्या था?
Ans. अकबर की प्रसिद्ध पत्नी का नाम जोधाबाई (मरियम-उज़-ज़मानी) था।
Q. अकबर के उत्तराधिकारी का नाम क्या था?
Ans. अकबर के उत्तराधिकारी का नाम जहांगीर (शहजादा सलीम) था।
Q. अकबर ने किस युद्ध में महाराणा प्रताप को हराया था?
Ans. अकबर ने हल्दीघाटी का युद्ध (1576) में महाराणा प्रताप को हराया था।
Q. अकबर का मकबरा कहाँ स्थित है?
Ans. अकबर का मकबरा सिकंदरा, आगरा में स्थित है।
Q. अकबर ने किस मुगल इतिहासकार को अपने दरबार में रखा था?
Ans. अकबर ने अबुल फजल को अपने दरबार में रखा था, जिन्होंने “अकबरनामा” लिखा।
Q. अकबर ने किस वर्ष में दीन-ए-इलाही की स्थापना की?
Ans. अकबर ने 1582 ईस्वी में दीन-ए-इलाही की स्थापना की।
Q. अकबर की मृत्यु कब हुई थी?
Ans. अकबर की मृत्यु 27 अक्टूबर 1605 को हुई थी।
Q. अकबर ने किस प्रसिद्ध संगीतकार को अपने दरबार में रखा था?
Ans. अकबर ने तानसेन को अपने दरबार में रखा था, जो एक महान संगीतकार थे।